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________________ ३३६ कर्मविज्ञान : भाग ८ और धार्मिक शूरवीरता के नाम पर दूसरे धर्म-सम्प्रदायों से लड़नें भिड़ने, उन्हें या उनके अनुयायियों को नीचा दिखाने, उनसे ईर्ष्या, द्वेष, वैर-विरोध, कलह, वाद-विवाद करने में, उनकी भर्त्सना करने या उनके साथ मानवता का भी व्यवहार न रखने, उनके आगमों-शास्त्रों को जला देने, फाड़ देने आदि तक का तथाकथित धर्मयुद्ध चलता है। इन हिंसाचारों में शक्ति लगाना वीर्याचार नहीं; कदाचार है, पापाचार है । ' पंचविध आचार का पालन केवल वीतरागता -प्राप्ति के लिए करें पंचविध आचार का पालन किसलिए हो, किसलिए नहीं ? इस सम्बन्ध में ‘दशवैकालिकसूत्र’ में आचार-समाधि के प्रसंग में कहा गया है- "इस लोक की किसी आकांक्षा लाभ या स्वार्थ के लिए आचार का पालन न करे, परलोक की किसी आकांक्षा के लिए आचार- पालन न करे, न ही कीर्ति, प्रशंसा, प्रसिद्धि या प्रतिष्ठा के लिए आचार- पालन करे, किन्तु केवल अर्हत्ता = वीतरागता के हेतुओं से आचार का पालन करे।"२ दोषदूषित पंचाचार - पालन से वीतरागतारूप साध्य की सिद्धि नहीं हो सकती : आशय यह है, इन पंचविध आचारों का इहलौकिक या पारलौकिक किसी फलाकांक्षा से, सांसारिक प्रयोजनों से, कामभोगों की प्राप्ति की इच्छा से या किसी अन्य लौकिक स्वार्थ की पूर्ति के लिए पालन किया जाये अथवा इनका पालन यशकीर्ति, प्रशंसा, प्रसिद्धि या प्रतिष्ठा की प्राप्ति की लालसा से किया जाये तो अर्हत्पद-प्राप्ति या वीतरागता - प्राप्ति, कर्मबन्ध के कारणरूप राग-द्वेषादि से मुक्तिरूप लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो सकेगी । अर्थात् ऐसी स्थिति में सर्वकर्ममुक्तिरूप साध्य की प्राप्ति इन दोषदूषित पंचाचारों से नहीं हो सकेगी। इसके अतिरिक्त अविवेक, गर्व, भय, सांसारिक या वैषयिक लाभ, निदान, संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय, दम्भ, रोष, अबहुमान, शंका, कांक्षा, विचिकित्सा आदि मानसिक दोषों से लिप्त प्रयोजनों से पंचाचार के पालन से भी सर्वकर्मक्षयरूप मोक्ष की प्राप्ति दूरातिदूर होती जायेगी । पंचाचार-साधना का विशिष्ट उद्देश्य : परमात्म-स्वरूप पाना पंचविध आचार एक प्रकार की साधना-आराधना है । साधना आत्मा की शुद्धि. के लिए, आत्मा में जो अर्हन्त का, सिद्ध परमात्मा का, वीतरागता का स्वरूप १. देखें - समवायांगसूत्र, समवाय ३०, सू. ९७ में महामोहनीय कर्मबन्ध के वोल ३० २. नो इहलोगट्टयाए आयारमहिद्विज्जा, नो परलोगट्टयाए आयारमहिट्ठिज्जा, नो कित्ति - वन्न - सह - सिलोगट्टयाए आयामहिद्विज्जा, नन्नत्थ आरहंतेहिं हेऊहिं आयारमहिट्टिज्जा । Jain Education International · - दशवै., अ. ९, उ. ४, सू. ५ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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