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________________ * ३२८ * कर्मविज्ञान : भाग ८ ॐ होगी। वहाँ से आयुष्य पूर्ण होने पर वह सीधे महाविदेह क्षेत्र में मनुष्यरूप में जन्म लेकर सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होगी। 'भगवतीसूत्र' में मनुष्य के लिये तो भगवान ने मोक्ष-प्राप्ति की योग्यता बताई है, फिर श्रमण या श्रमणोपासक बन जाने पर सम्यक् प्रकार से व्रताराधना-साधना करने पर कर्मक्षयार्थ रत्नत्रय एवं सम्यक्तप की साधना करने से उत्कृष्ट देवलोक में या सिद्धगति में जाने का उल्लेख विभिन्न आगमों में बताया है। इतना ही नहीं, जो मनुष्य श्रमण या श्रमणोपासक बनने पर सम्यक् प्रकार से पालन नहीं करता, बाह्य क्रियाकाण्डों को करके सन्तुष्ट हो जाता है, परस्पर वैर-विरोध, राग-द्वेष, पक्षपात, कदाग्रह आदि मन में रखता है और अन्तिम समय में अपने कृत दोषों की आलोचना-प्रतिक्रमणादि करके आत्म-शुद्धि किये बिना ही संलेखना-संथारा करके या किये बिना ही आयुष्य पूर्ण करता है, वह मरकर देवलोक में जाने पर भी वहाँ अच्छा वातावरण प्राप्त नहीं करता, फिर किसी न किसी शुभ योग से उसे अपने कत्य पर पश्चात्ताप होता है तो वह आराधक बनकर उत्तम देवलोक प्राप्त करता है। वहाँ से महाविदेह क्षेत्र में मनुष्य-भव प्राप्त करके सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होता है। . विराधक अभीचिकुमार वैरानुबन्ध के कारण असुरकुमार देव बना उदयन-पुत्र अभीचिकुमार को पिता द्वारा उत्तम आशय से राज्य न दिये जाने के कारण वह स्पष्ट होकर पिता के प्रति रोष-द्वेष-वैर-विरोध उसके मन में उत्पन्न. हुआ। यद्यपि वह बाद में श्रमणोपासक बना। वह जीवादि तत्त्वों का भी ज्ञाता था। व्रतों का भी पालन करता था। उसने अन्तिम समय में अर्ध-मासिक संलेखना-संथारा भी किया। मगर उदायन राजर्षि के प्रति वैरानुबन्धरूप पाप की आलोचना प्रतिक्रमण किये बिना ही वह मरकर असुरकुमार देव बना। वहाँ से वह आयुष्य पूर्ण करके महाविदेह क्षेत्र में मनुष्यरूप में जन्म लेगा। अपनी आत्म-शुद्धि करके सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होगा। जामाली अनगार और आजीवक गोशालक भी भगवान महावीर के प्रतिद्वन्द्वी बनकर रहे। फिर भी उनकी साधना, विराधना-आराधना के फलस्वरूप उन्हें अनेकानेक भवों के पश्चात् सिद्धि-मुक्ति प्राप्त होगी, ऐसा उल्लेख भगवतीसूत्र में है। वास्तव में मुमुक्षु जीव, जिसे भविष्य में मोक्ष-प्राप्ति की तमन्ना होती है, वह अपनी साधना बहुत ही तन्मयतापूर्वक करता है, मोक्ष के भावों में ही वह अहर्निश डूबा रहता है, उसी प्रकार के स्वप्न देखता है, स्वाध्याय, मनन, चिन्तन, अनुप्रेक्षण १. भगवतीसूत्र, खण्ड ३, श. १४, उ. ८, सू. १८-२० २. (क) देखें-अभीचिकुमार का वृत्तान्त, भगवतीसूत्र, खण्ड ३, श. १३, उ. ६. सू. ३५-३६ (ख) देखें-गोशालक का वृत्तान्त, भगवती, श. १५; जामाली का वृत्तान्त, भगवती, श. ९, उ.३३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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