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________________ ॐ ३२६ * कर्मविज्ञान : भाग८ उसे एक बार राजा, गण और प्रबल जनसमूह के आदेश के आगे झुकना पड़ा, उसकी इच्छा तो नहीं थी रथमूसलसंग्राम (चेटक-कोणिक युद्ध) में जाने की, मगर बिना मन से उदासीनभाव से गया। वह चतुरंगिणी सेना तैयार करके शस्त्र से सज्ज होकर तेले का तप करके सेनापति बनकर संग्राम में पहुँचा। संग्राम में उसका एक नियम था, विपक्ष का सैनिक प्रहार करता, तभी वह प्रति-प्रहार करता था। फलतः विपक्ष के सैनिक ने वरुण नाग पर गाढ़ प्रहार किया किन्तु वरुण नाग ने उसे एक ही प्रहार में धराशायी कर दिया। किन्तु सख्त घायल हुए वरुण ने स्वयं को अशक्त एवं अबल व पराक्रमरहित जानकर रणभूमि से एक ओर जाकर रथ खड़ा किया। दर्भसंस्तारक करके उस पर पर्यंकासन से बैठकर संलेखना-संथारा कर लिया। कवच खोलकर शरीर से बाण को निकाला और समाधिपूर्वक मरण प्राप्त किया। गौतम स्वामी द्वारा वरुण नाग की गति के विषय में पूछने पर भगवान ने कहा-“वरुण नाग समाधिपूर्वक मरकर सौधर्म देवलोक में आराधक देव के रूप में उत्पन्न हुआ है। उस देवलोक से च्यवकर वह महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होगा।" वैदिक ग्रन्थों में युद्ध में मरने वालों को सभी को स्वर्ग प्राप्त होता है, ऐसी मान्यता का यहाँ निराकरण करते हुए कहा गया है। 'जैनदर्शन' के अनुसार-युद्ध में मरने वाले सभी स्वर्ग में नहीं जाते। बल्कि अज्ञानपूर्वक तथा तप-त्याग-व्रत-प्रत्याख्यानरहित होकर असमाधिपूर्वक मरने से प्रायः नरक या तिर्यंचगति ही मिलती है। अतः संग्राम करने वाले सभी व्रतधारियों को भी संग्राम करने से या संग्राम में मरने से स्वर्ग प्राप्त नहीं होता, अपितु न्यायपूर्वक संग्राम करने के बाद जो संग्रामकर्ता अपने दुष्कृत्यों के लिये पश्चात्ताप, आलोचन, प्रतिक्रमण करके शुद्ध होकर समाधिपूर्वक मरता है, वही स्वर्ग में जाता है।' भगवान महावीर ने अपने केवलज्ञान के प्रकाश में जैसा जाना-देखा, वैसा ही प्ररूपित किया है। उनका किसी की जीव के प्रति पक्षपात, राग, द्वेष या वैर-विरोध नहीं। कोणिक जैसे परम भक्त बने हुए श्रेणिक-पुत्र को भी उन्होंने उसके कुकृत्यों के फलस्वरूप अपना भविष्य पूछने पर छठी नरकभूमि में जाने की स्पष्ट बात कही। किसी प्रकार का मुलाहिजा नहीं रखा। । दूसरी ओर उन्होंने एकेन्द्रिय जीवों के लिये भी भविष्य में मनुष्य-जन्म पाकर सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होना स्वीकार किया है। ‘भगवतीसूत्र' में माकन्दी-पुत्र अनगार द्वारा भगवान महावीर से प्रश्न पूछा गया है-“भंते ! कापोतलेश्यी पृथ्वीकायिक, अप्कायिक और वनस्पतिकायिक जीव मरकर क्या मनुष्य-शरीर प्राप्त कर सकते हैं और सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो सकते हैं ?" १. भगवतीसूत्र, श. ७, उ. ९, सू. २०-२४, पृ. १९२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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