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________________ १४ कर्मविज्ञान : भाग ८३ ठीक नहीं विछा था ?” नौकर बोला - "सेठ जी ! मैं भूल गया था।" दूसरी रात नौकर ने पहली रात से भी अधिक खराब ढंग से बिछौना विछाया । मालिक ने अपने शान्त स्वभाववश ऐसा करने का कारण पूछा तो कहा -": -"मुझे अवकाश नहीं मिला।" तीसरे दिन भी उसने जब ऐसा ही किया तो मालिक ने मुस्कराकर कहा" मालूम होता है, तू मेरी इस आदत को पसंद नहीं करता और इस काम से उकता गया है तो डर मत । मैंने भी अपनी आदत अब ऐसे अस्त-व्यस्त विछौने पर सोने की बना ली है। मुझे ऐसे सोने में कोई दुःख नहीं है ।" यह सुनकर नौकर लज्जित होकर सेठ के चरणों में गिर पड़ा, क्षमा माँगी और सारी दास्तान कह सुनाई । यह है दुःख के प्रसंगों में अपने को एडजस्ट करके सुखानुभव करने का ज्वलन्त उदाहरण ! सुख-दुःख के सभी प्रसंगों में समभाव से अभ्यस्त व्यक्ति का जीवन सुख-दुःख के प्रसंगों में भी सुख - दुःख महसूस न करके समभाव में स्थित रहना भी बहुत बड़ी कला है। इसका अभ्यास करने से व्यक्ति तात्त्विक दृष्टि से विचार करके कर्मनिर्जरा भी कर सकता है। इस सम्बन्ध में एक ऐतिहासिक उदाहरण लीजिए अरबस्तान के खानदानी परिवार का एक लड़का दुर्दशा से ग्रस्त हो जाने से शत्रुओं के हाथ में पड़ गया। उन्होंने उसे गुलाम के रूप में बेच डाला। जिसने उसे खरीदा था, वह मालिक बहुत क्रूर था । एक व्यापारी, जो उसे गाँव में व्यवसाय के निमित्त आया करता था, उसने इस युवक को कठोर परिश्रम करते देखकर पूछा"भाई ! तुम्हें बड़ा दुःख हो रहा है न ?” युवक बोला - " जो पहले नहीं था और भविष्य में रहेगा नहीं, उस विनश्वर दुःख की क्या चिन्ता की जाए ?" कुछ वर्षों बाद वह व्यापारी फिर उस गाँव में आया, उसे पता लगा कि उस युवक का अनुदार मालिक मर गया है और वह युवक अपने मालिक की गिरती दशा देख, गुलामी से मुक्त होकर मालिक की पत्नी और पुत्र का अपनी कमाई से भरण-पोषण कर रहा है। व्यापारी ने इस समय युवक से कहा- “अब तो सुख में हो न?” उसने उत्तर दिया-‘“जो परिवर्तनशील है, उसे सुख भी क्यों मानना और दुःख भी क्यों माना जाए ?" इसके दो साल बाद वही व्यापारी आया और उसने देखा कि वह दास अब जिले का अग्रेसर बन गया है। उसके मातहत बहुत-से व्यक्ति काम कर रहे हैं। आसपास के गाँव वालों ने उसे सरदार बना दिया है, क्योंकि उसने उस इलाके के डाकुओं और लुटरों को दबा दिया है। उसकी इस महान् सेवा के बदले में गाँव वालों ने उसे बहुत-सी जमीन भेंट दे दी है। " ऐसी स्थिति में उक्त व्यापारी द्वारा पूर्ववत् सुख-सम्बन्धी प्रश्न किये जाने पर उसने वैसा ही उत्तर दिया कि मेरे लिए सुख और दुःख दोनों एक-से हैं। आप जिसे सुख कहते हैं, मैं उसे भी नम्रतापूर्वक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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