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________________ के दर्द को भूल के मूरख, सुख में ग़ावे गान । उलट-फेर में चपत लगे जब, भूल जाय सब तान ॥ मनवा. ॥४॥ सुख-दुःख में इकरंगी रहते, ऐसे विरले जान। धन्य-धन्य उस धीर-वीर को, दुःख में गावे गान ॥ मनवा. ॥५॥ कितना प्रेरणादायक है, यह सुख और दुःख में समता का बोधगीत ! सुख-दुःख में ज्ञानी समभावी और अज्ञानी विषमभावी हो जाते हैं वस्तुतः सुख और दुःख दोनों मनुष्य के जीवन में आते हैं। इतना ही नहीं, वीतरागी महापुरुषों के जीवन में भी ये दोनों वेदनीय कर्म के फलस्वरूप आते हैं। किन्तु वे सुख और दुःख में ज्ञाता - द्रष्टा बने रहते हैं । समभाव के तत्त्व से अनभिज्ञ और सांसारिक दुःखबीज सुख के अभ्यासी, अज्ञ जीव सुख में फूल जाते हैं और दुःख आने पर घबराकर हायतोबा मचाते हैं। . दुःख निर्जरा का मुख्य कारण : सुख-दुःख में समभाव ४ १३ ४ जीवन में सुख की अधिकता होने पर भी अज्ञानतावश दुःख को आमंत्रण वास्तव में देखा जाय तो मानव-जीवन में सुख अधिक है, बशर्ते कि दुःख में से सुख निकालने की कला आ जाए। वह तभी आ सकती है, जब व्यक्ति यह समझे कि यह दुःख अपने आप में दुःख नहीं है, मेरी ही अज्ञानता से, प्रमाद से तथा अशुभ भावों से उपार्जित है; अगर मैं समभाव रखकर इसे सहन कर लूँ तो यह भी सुखरूप बन सकता है। दुःख मुझे जाग्रत करने और अहिंसा-सत्यादि की साधना में; जप-तप में पुरुषार्थ करने की प्रेरणा देने के लिए आया है। अगर मैं सुख में आसक्त हो जाता, आलसी बन जाता तो दूसरों के दुःख का क्या पता लगता। जीवन तो सुख की धारा है, किन्तु मनुष्य अपने मन, वचन और काया के कटु व्यवहार से, वैर-विरोध करके, अपने हृदय को तुच्छ और अनुदार बनाकर, अंहकारवश दूसरों का तिरस्कार करके दुःख और आफत को आमंत्रण दे देते हैं। अतः प्रत्येक परिस्थिति में मनुष्य सुख का उज्ज्वल पहलू पकड़े तो वह स्वस्थ और प्रसन्न रह सकता है। सेठ ने दुःखकर प्रसंग को भी सुखरूप मान लिया एक सेठ बहुत ही शान्त, उदार और सहिष्णु था। कुछ मनचले युवकों ने उसकी परीक्षा लेने की ठानी। उसके नौकर से मिलकर उन्होंने कहा - " अगर तुम अपने मालिक को क्रोधित कर दो तो हम तुम्हें सौ रुपये इनाम देंगे।" नौकर ने हाँ भर ली। नौकर जानता था कि मालिक को पलंग का बिछौना टेढ़ा और सलवटदार नापसंद है। उसने रात को मालिक का बिछौना अस्त-व्यस्त बिछा दिया। मालिक समझ गया। वह सुबह उठा तब नौकर से मुस्कराते हुए कहा - "क्या आज बिछौना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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