SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 336
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४ ३१६ कर्मविज्ञान : भाग ८ से दृढ़-प्रतिज्ञ नामक केवली होगा । केवली - पर्याय में बहुत वर्षों तक विहरण करके संलेखना-संथारापूर्वक समाधिमरण प्राप्त करके सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होगा ।' अम्बड़ परिव्राजक श्रावकव्रतों का पालन कर ब्रह्मलोक में देव बना 'औपपातिकसूत्र' में अम्वड़ परिव्राजक का वर्णन है। वह भगवान महावीर का परम भक्त था। उसने भगवान महावीर से अनेक अणुव्रत - गुणव्रत- शिक्षाव्रत ग्रहण किये तथा सूर्याभिमुख होकर आतापना लेने से शुभ परिणामों और प्रशस्त श्याओं के कारण तदावरणीय कर्मों के क्षयोपशम से वीर्यलब्धि, वैक्रियलव्धि और अवधिज्ञानलब्धि प्राप्त हुई । परिव्राजक होते हुए वह संयम-नियमपूर्वेक विचरण करता था। उसने अन्तिम समय में २९ दिनों का संलेखना - संथारापूर्वक समाधिमरण प्राप्त किया। पाँचवें ब्रह्मलोक नामक देवलोक में उत्पन्न हुआ। वहाँ से च्यवकर वह महाविदेह क्षेत्र में उत्तम कुल में दृढ़-प्रतिज्ञ नामक कुलपुत्र होगा । किसी स्थविर से दीक्षा लेकर सर्वविरति चारित्र का पालन करेगा, फिर साधना के फलस्वरूप चारों घातिकर्मों का क्षय करके केवलज्ञान प्राप्त करेगा। बहुत वर्षों तक केवली- पर्याय में रहकर अन्त में वह सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो जाएगा। अम्बड़ परिव्राजक के ७०० शिष्य भी अन्तिम समय में समाधिमरणपूर्वक काल करके ब्रह्मलोक में देव बने। वहाँ से वे अगले भव में महाविदेह क्षेत्र में मनुष्य जन्म पाकर उत्तम साधना करके सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होंगे। संज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय-पर्याप्तक के द्वारा द्वितीय भव में मोक्ष प्राप्ति तिर्यंच संज्ञी पंचेन्द्रिय-पर्याप्तक जीवों में कई जलचर, स्थलचर और खेचर ऐसे होते हैं, जिनको अपने शुभ परिणामों से प्रशस्त अध्यवसायों से विशुध्यमान लेश्याओं से तदावरणीय कर्मों के क्षयोपशम से ईहा, अपोह, मार्गण और गवेषण करने से पूर्व जन्म का स्मरण ( जाति - स्मरणज्ञान) उत्पन्न हो जाता है। पूर्व जन्म का ज्ञान होने से वे स्वयं पाँच अणुव्रतों को ग्रहण करते हैं तथा शीलव्रतों, गुणव्रतों, त्याग-प्रत्याख्यान-पौषधोपवास से अपनी आत्मा को भावित करते हुए अपनी आयु के अन्तिम समय में भक्त - प्रत्याख्यान के रूप में संलेखना - संथारा ( यावज्जीवअनशन) स्वीकार करते हैं, अपनी आलोचना - प्रतिक्रमण द्वारा अपनी आत्म-शुद्धि करके समाधिपूर्वक कालधर्म प्राप्त करते हैं । ऐसे परलोक के आराधक तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीव मरकर उत्कृष्ट सहनारकल्प में देव बनते हैं। वहाँ से च्यवकर महाविदेह क्षेत्र में मनुष्य-भव पाकर साधना करके सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो जाते हैं। नंदन मणियार के जीव ने अट्टम पोपध के दौरान वावड़ी बनाने का विचार करके दोष १. देखें- राजप्रश्नीयसूत्र में प्रदशी राजा का अधिकार २. देखें- औपपातिकसूत्र, सू. १३-१४ में अम्बड़ के शिष्यों तथा अम्बड़ परिव्राजक का जीवनवृत्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy