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________________ ॐ मोक्ष अवश्यम्भावी : किनको और कब ? ॐ ३११ . विभिन्न पहलुओं और दृष्टियों से मोक्ष की अवश्यम्भाविता भगवान महावीर ने जीवों की विभिन्न रुचि, परिस्थिति, विभिन्न द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव को लेकर विभिन्न प्रकार से अनेक कोटि के जीवों के विषय में मनुष्य-जन्म पाकर मोक्ष की अवश्यम्भाविता प्रतिपादित की है। ‘महिम्न स्तोत्र' में कहा गया है-“जिस प्रकार सीधी (सरल) और टेढ़ी-मेढ़ी चाल से बहने वाली विभिन्न नदियाँ अन्त में एकमात्र समुद्र में मिल जाती हैं, उसी प्रकार विभिन्न रुचियों, परिस्थितियों एवं मनःस्थितियों की विचित्रता-विभिन्नता के कारण सरल और जटिल नाना प्रकार के पथ पर चलने वाले मनुष्यों (साधकों) के लिए अन्त में एकमात्र आप (परमात्मा) ही गम्य = प्राप्य हैं। अर्थात् सब आप में ही समा जाते हैं--लीन हो जाते हैं। यहाँ भी विभिन्न रुचि आदि को लेकर विविध सरल या जटिल मार्गों से मोक्षपथ पर गति करने वाले मुमुक्षु मानव अन्त में देर-सबेर सर्वकर्ममुक्तिरूप पूर्ण-मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं। . जिनको पर-भव से मुक्तिरूप फल मिलना निश्चित है 'भगवतीसूत्र' में बताया गया है कि “मुक्ति पाने के लिए योग्य सभी भवसिद्धिक (भव्य) जीव एक न एक दिन अवश्य ही सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होंगे।" 'प्रज्ञापनासूत्र' तथा उसकी ‘मलयवृत्ति' में कहा गया है-“जिसने सम्यक्त्व आदि के द्वारा अपने संसार को परीत (परिमित = सीमित) कर दिया है, वह परीत संसारी आत्मा जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल और उत्कृष्टतः अनन्त काल-कुछ कम अपार्ध-पुद्गल-परिवर्तन काल तक ही संसार में रहता है, तत्पश्चात् वह अवश्य ही सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष प्राप्त कर लेता है। यानी वह अवश्य मोक्षगमन करता है।" इसी प्रकार ‘स्थानांग' और 'भगवतीसूत्र' के अनुसार-“श्रवण, ज्ञान, विज्ञान, प्रत्याख्यान, संयम, संवर, तप, व्यवदान (निर्जरा), अक्रिया और अन्त में निर्वाण रूप फल उत्तरोत्तर होता है। यानी श्रवण से लेकर निर्वाण तक का परम्परागत निश्चित फल बताया गया है। भगवतीसूत्र' में जयंती श्राविका द्वारा संसार-सागर को पार करने से सम्बन्धित किये गए प्रश्न के उत्तर में भगवान महावीर ने १. रत्तीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनाना पथजुषां। नृणामे को गम्य स्त्वमसि पयसामर्णव इव॥ -महिम्न स्तोत्र २. (क) हंता जयंती ! सब्वेवि णं भवसिद्धिया जीवा सिज्झिस्संति। -भगवती, श. १२, उ. २, सू. १६; वही, श. १, उ. ९ (ख) संसार-परित्ते णं पुच्छा ! गोयमा ! जहण्णेण अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं अणंतं काल जाव अवड्ढं पोग्गल-परियट्ट देसणं। -प्रज्ञापना, प. १८, सू. २४७ म. वृत्ति (ग) भगवती, श. १२, उ. २, सू. १४ (घ) सवणे नाणे विन्नाणे पच्चक्खाणे य संजमे। अणण्हए तवे चेव, वोदाणं अकिरिय णिव्वाणे॥ -स्थानांग, अ. ३, उ. ४, सू. २५२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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