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________________ ॐ शीघ्र मोक्ष-प्राप्ति के विशिष्ट सूत्र ॐ ३०९ 8 या अपूनमरण के दो फलितार्थ हैं-या तो वह जन्म-मरण के चक्र से सर्वथा छुटकर सिद्ध-वुद्ध-मुक्त हो जाता है, अथवा जाति के देवों में उत्पन्न होकर फिर क्रमशः मोक्ष प्राप्त करता है।' 'उत्तराध्ययनसूत्र' में भक्त-प्रत्याख्यान (आजीवन अनशन) का परिणाम बताते हुए कहा गया है-"(अनातुरतापूर्वक स्वेच्छा से दृढ़ अध्यवसायपूर्वक) भक्त-प्रत्याख्यान करने से अनेक शत भवों (सैकड़ों भवों की जन्म-मरण-परम्परा) का निरोध कर लेता है। आहार की आसक्ति छूट जाने से स्थूल और सूक्ष्म दोनों प्रकार के शरीरों का ममत्व शिथिल हो जाता है। इस प्रकार समाधिपूर्वक मृत्यु का वरण करने वाला अपनी मृत्यु को एक महोत्सव मानता है। फलतः या तो उसके जन्म-मरण का सदा के लिए अन्त हो जाता है या फिर वह उच्चतम देवलोक को प्राप्त करता है और अगले भव में मोक्ष प्राप्त कर लेता है।" 'उत्तराध्ययनसूत्र' में ही सकाम-अकाममरण का विस्तृत वर्णन है। वहाँ सकाममरण को ही सर्वश्रेष्ठ माना है। ‘आचारांगसूत्र' में भक्त-प्रत्याख्यान, इंगितमरण और पादोपगममरण, ये तीन समाधिमरण के प्रकार और उनकी विधि का सुन्दर निरूपण है। इसके अतिरिक्त जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप, समाधिमरण, जीवन की अन्तिम मुस्कान, श्रावकधर्म-दर्शन आदि ग्रन्थों और पुस्तकों में संलेखना-संथारासमाधिमरण के स्वरूप और आचरण की विधि विस्तृत रूप से जानी जा सकती है।' इस प्रकार मोक्ष के चारों अंगों से सम्बन्धित कुल १९ बोलों (सूत्रों) का सम्यग्दर्शन-ज्ञानपूर्वक विधिवत् आचरण करने से शीघ्र ही मोक्ष-प्राप्ति हो सकती है। १. (क) देखें-पण्डितमरण की भावना के लिए ‘महापच्चक्खाण पइण्णय', गा. ४१-५0 (ख) तिहिं ठाणेहिं समणे णिग्गंथे। समणोवासए महाणिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ। ..कयाणं अहं अपच्छिम-मारणंतिय-संलेहणा-झूसणा-झूसिते भत्तपाण-पडिआइक्खिते पाओवगते काले अणवकंखमाणे विहरिस्सामि। -स्थानांग, स्था. ३, उ. ४ (ग) उत्तरा., अ. २९, सू. ४१, अ. ५ (घ) आचारांग, श्रु. १, अ.८, उ. ७-८ (ङ) देखें-'जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप' (आचार्य देवेन्द्र मुनि) में समाधिमरण की कला : संलेखना (च) 'समाधिमरण' (भोगी भाई गि. सेठ), 'जीवन की अन्तिम मुस्कान' (उ. केवल मुनि जी), 'श्रावकधर्म-दर्शन' (उ. पुष्कर मुनि जी) For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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