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________________ ॐ शीघ्र मोक्ष-प्राप्ति के विशिष्ट सूत्र * २८९ 8 व्यक्ति जीवों के यथार्थ स्वरूप को नहीं जानते, वे एकान्तदृष्टि पकड़कर या तो यह कहते हैं कि "जीव (आत्मा) है ही नहीं,” अथवा जीव (आत्मा) नित्य है, उसका नाश होता ही नहीं, वह तो अमर अविनाशी है।" जीव को न मानने या एकान्त नित्य मानने वाले ऐसे लोग हिंसा का स्वरूप भी नहीं समझते, फिर जीवों की रक्षा कैसे होती है ? जीवों की हिंसा के क्या-क्या कारण हैं ? जीवहिंसा से कैसे विरत हुआ जा सकता है ? इन तथ्यों को नहीं जानने वाले लोग जीवरक्षा से विमुख हो जाते हैं, वे विषयों में आसक्त होकर अपने सुखोपभोग के लिए जीवों की विराधना करते रहते हैं। उनके जीवन में न तप है, न संयम है और न ज्ञान और संवेग है।' व्यवहारदृष्टि से जीव को दशविध प्राणों से वियुक्त करना हिंसा है वैसे तो निश्चयनय की दृष्टि से जीव सिद्ध-परमात्मा के समान है, किन्तु व्यवहार में कर्मों के कारण नाना गतियों और योनियों में वह नाना रूपों वाला होकर भव-भ्रमण करता है, वह प्राणों से ही शरीर में बँधा हुआ है, प्राणों का धारण है, इसलिए प्राणी कहलाता है। मूल प्राण चार हैं-(१) पंचेन्द्रिय बल, (२) त्रिविध योग बल, (३) श्वासोच्छ्वास बल, और (४) आयुष्य बल। सुख-दुःख, जीवन-मरण आदि सब प्राणों पर आधारित हैं। सभी जीवों को प्राण प्रिय है, जीवन प्रिय है, मरण अप्रिय है। सभी जीव सुख चाहते हैं, दुःख नहीं। अतः निश्चयदृष्टि से जीव नित्य होने पर भी व्यवहारनय से प्राणों का नष्ट हो जाना, उनका मरण है। अतः दस प्राणों में से किसी भी प्राण को नष्ट करना, क्षति पहुँचाना, वियुक्त करना जीवों की हिंसा (प्राणातिपात) है। जो जीव प्रमत्त है, स्वच्छन्द है, विषयभोगों में आसक्त है, यतनारहित है, असंयत है, उसका योग व्यापार (मन-वचन-काय की प्रवृत्ति) अन्य जीवों के लिए शस्त्ररूप होता है, क्योंकि वह आत्म-नियंत्रण (संवर) नहीं रख सकता। _ हिंसा के पाँच कारण : अशुभ कर्मबन्ध के हेतु (१) (जीवादि तत्त्वों के विषय में तथा हिंसा-अहिंसा के विषय में) अज्ञान, (२) अनास्तिक्य (जिनोक्त व्रतादि पर अनास्था या मिथ्या श्रद्धा-मान्यता), (३) आत्म-अनियंत्रण (स्वयं को वश में न रखना), (४) प्रमाद (असावधानी, अनादर या अजागृति), और (५) हिंसा-अहिंसा की अज्ञता; ये पाँचों हिंसा के कारण हैं और अशुभ कर्मों के बन्ध के हेतु हैं।' १. (क) 'मोक्खपुरिसत्थो, भा. १' से भाव ग्रहण, पृ. १९२-१९३ ... (ख) जो जीवे वि न याणइ, अजीवे वि न याणइ। ____ जीवाजीवे अयाणंतो कहं सो नाहीइ संजमं? २. (क) 'मोक्खपुरिसत्थो, भा. १' से भाव ग्रहण. पृ. २०३, २०६ (ख) सव्वे जीवा सुहसाया दुहपडिकूला सव्वेसिं जीवियं पियं। -दशवै. ४/१२ -आचारांग, श्रु.१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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