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________________ ॐ २८८ 8 कर्मविज्ञान : भाग ८ ॐ (७) अपरिग्रह (कषायों की बौद्धिक या आन्तरिक पकड़), और (८) अरुचि। इसी प्रकार कषायों पर विजय पाने के लिए ९ द्वारों का निर्देश किया गया है(१) दर्शनद्वार (बाह्य, आभ्यन्तर और आत्मा का दर्शन तथा त्रिविध वाह्य दर्शन = प्रसंग दर्शन, श्वास दर्शन, शरीर दर्शन) तथा आभ्यन्तर दर्शन दो प्रकार का = अन्तर्मुख होकर मनोदर्शन तथा आत्म-दर्शन, (२) प्रतिसंलीनता द्वार, (३) इच्छात्याग द्वार, (४) अदीनता द्वार (कषायों के वल से आत्म-बल बढ़कर है, अतः कषायों से हार न माने), (५) आज्ञा-स्मृति द्वार, (६) दृष्टान्त द्वार (वोधक उदाहरण), (७) विरोधी भण्डार, (८) गुरु-आज्ञा में प्रसन्नता द्वार, और (९) कर्मविपाक-चिन्तन द्वार। इस प्रकार कषायों पर विजय प्राप्त करके साधक कर्मक्षय के मार्ग पर तीव्र गति से बढ़ता है। और प्रशम, संवेग, निर्वेद, धर्मश्रद्धा, प्रलोकना, आत्म-निन्दा और गर्दा, ये सप्तविध भाव भाव-विशुद्धि के हेतु हैं, भाव-विशुद्धि होने पर कषायक्षय शीघ्र होता है। कषायों का क्षय ही मोहक्षय है। मोहक्षय होते ही केवलज्ञान, वीतरागता और चार घातिकर्मों का क्षय, तत्पश्चात् चार अघातिकर्मों का भी क्षय करके व्यक्ति सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो जाता है। अतः कषायविजय या कषायक्षय शीघ्र मोक्ष-प्राप्ति का असंदिग्ध कारण है।' . सातवाँ बोल-षड्जीवनिकाय की रक्षा करे तो जीव वेगो-वेगो मोक्ष में जाय षटकायिक जीवों के नाम इस प्रकार हैं-(१) पृथ्वीकाय, (२) अप्काय, (३) तेजस्काय, (४) वायुकाय, (५) वनस्पतिकाय, और (६) त्रसकाय (द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय)। । सर्वप्रथम 'जीव' के स्वरूप और अजीव से जीव की भिन्नता जानने की आवश्यकता है। कई दर्शन और धर्म एकेन्द्रिय (पंच स्थावर) जीवों को जीव ही नहीं मानते। कई लोग पंचेन्द्रिय को छोड़कर द्वीन्द्विय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीव को भी नहीं मानते, कई आधे-अधूरे मन से मानते हैं, तो कई उनमें जीव मानते हुए भी उनकी उपेक्षा कर देते हैं, उनके जीवन की कोई परवाह नहीं करते। जो जीव और अजीव को नहीं जानता वह संयमाराधक नहीं हो सकता .. अतः जो व्यक्ति जीव और अजीव को नहीं जानता अथवा जानता हुआ भी आत्मौपम्य भाव न रखकर, अन्य जीवों के सुख-दुःख को अपने समान नहीं समझता, वह कैसे संवर-निर्जरा का, संयम का या मोक्षमार्ग का आराधक हो सकता है ? 'दशवैकालिकसूत्र' में स्पष्ट कहा है-"जो जीव को भी नहीं जानता और अजीव को भी नहीं जानता, जीव और अजीव के स्वरूपादि से अनभिज्ञ वह व्यक्ति संयम (जीवसंयम और अजीवसंयम) को कैसे जानेगा?" वास्तव में जो १. 'मोक्खपुरिसत्थो, भा. ३' से भाव ग्रहण, पृ. ३७, २०७, २६६-२६७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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