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________________ * २८४ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ८ ॐ (६) श्रवण-विवेक, (७) भोजन-विवेक, (८) भोजनमात्रा-विवेक, (९) विभूषाविवेक, और (१०) विषय-विवेक के अतिरिक्त कामविजयी ब्रह्मचर्य लीन महापुरुषों का स्मरण करना और निश्चयदृष्टि से ब्रह्मचर्यभावना से भावित होकर . ब्रह्म (शुद्ध आत्मा) में रमण करने वाले साधक को ब्रह्मचर्य-पालन से शीघ्र मोक्षप्राप्ति हो सकती है। बिना भावपूर्वक ब्रह्मचर्य-पालन के माध्यम से मोक्षपुरुषार्थ के आत्मा की गहराई तक पहुँचने पर ही मोक्ष-प्राप्ति होती है।' इसके अतिरिक्त ब्रह्मचर्यभावना से आत्मा को भावित और परिपुष्ट करने हेतुकामविजयी कामातीत अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु-साध्वी, सतीवृन्द .. आदि का पुनः-पुनः स्मरण करना चाहिए। उनका दर्शन, स्मरण और नमस्कार भी ब्रह्मचर्य में श्रद्धा उत्पन्न करते हैं। शक्रस्तव, लोगस्स, नमोक्कारसुत्त तथा सिद्धचक्र (नवपद) आदि को वन्दना-नमस्कार, गुणगान, स्तुति-पाठ आदि करें। पाँचवाँ बोल-शक्ति होते हुए भी क्षमा करे तो जीव वेगो-वेगो मोक्ष में जाय क्षमा : स्वरूप, दुष्करता शक्तिशाली के लिए क्षमा को नीतिकारों ने धर्म की माँ कहा है। क्षमा का एक अर्थ है-सहिष्णुतासहनशीलता। सहिष्णुता होने पर ही धर्मभाव पुष्ट होते हैं। अरहंतों को क्षमाशूर कहा है और श्रेष्ठ श्रमणों को क्षमाश्रमण। वस्तुतः क्षमा श्रमणधर्म का प्रमुख अंग है। क्षमा की परिभाषा है-"सत्यपि सामर्थ्य अपकार सहनं क्षमा।"-सामर्थ्य होते हुए भी अपकार को सहना क्षमा है। परन्तु शक्ति होते हुए भी क्षमा करना बहुत ही दुष्कर है। जैसे यौवनवय में शीलपालन करना दुष्कर है, दीनजन के लिए आनन्द दुर्गम है, विद्वेषशील दुर्जन के मन में वात्सल्यभाव उत्पन्न होना दुर्लभ है, वैसे ही शक्तिशाली मानव के लिए क्षमा करना दुष्कर है। शक्ति के दो प्रकार और स्वरूप शक्ति बाह्य और आभ्यन्तर भेद से दो प्रकार की है-बाह्य साधनों की प्रचुरता होने से मनुष्य को जो शक्ति प्राप्त होती है, उसे बाह्य और आभ्यन्तर गुणों से जो शक्ति प्राप्त होती है, उसे आभ्यन्तर शक्ति कहते हैं। बाह्यशक्ति : स्वरूप, प्रकार, सदुयोग-दुरुपयोग बाह्यशक्ति मुख्यतया चार प्रकार की है-(१) शरीरशक्ति, (२) जनशक्ति, (३) धनशक्ति, और (४) आधिपत्यशक्ति। (१) कायबल के बिना सभी बल फीके हैं। धन, जन और सत्ता की शक्ति होते हुए भी यदि काया दुर्बल हो, रोगाक्रान्त हो, अपंग हो, इन्द्रियविकल ही, वृद्धावस्था १, उत्तराध्ययनसूत्र, अ. १६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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