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________________ ॐ शीघ्र मोक्ष-प्राप्ति के विशिष्ट सूत्र ॐ २७७ 8 भी ईश्वर या शक्ति अथवा जड़-चेतन पर-पदार्थ उसे पूर्णता, सर्वकर्ममुक्ति या परमात्मपंद प्रदान नहीं कर सकते। इस प्रकार जीव जब पर-भावों एवं विभावों को पल्ला छोड़कर इस प्रकार स्वयं कर्तृत्व, भोक्तृत्व, हर्तृत्व एवं पूर्णत्व के रूप में एकत्वानुप्रेक्षा करता है, तब मोक्षमार्ग में, निज शुद्ध भावों में स्थित होने की भावना जागती है। ___ अशरणानुप्रेक्षा मुक्ति-प्राप्ति में पुरुषार्थ करने की भावना जगाती है - चतुर्थ अनुप्रेक्षा है-अशरणानुप्रेक्षा। कोई भी मनुष्य कितना ही पुण्यशाली हो, भौतिक शक्ति-सम्पन्न हो, सत्ताधीश हो, धनाढ्य हो अथवा प्रभुत्व-सम्पन्न हो, उसे जन्म, जरा, व्याधि और मृत्यु से कोई बचा नहीं सकता, कोई भी सहायक नहीं बन सकता, कोई भी इन दुःखों में हिस्सा नहीं बँटा सकता, धन, वैभव, औषध, शरीर तथा स्वजन-परिजन आदि कोई भी शरण नहीं दे सकता, मृत्यु आदि से रक्षा नहीं कर सकता। इस लोक में एकमात्र संवर-निर्जरा-मोक्षरूप या सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रयरूप शुद्ध धर्म के सिवाय कोई भी त्राता, रक्षणकर्ता या शरणदाता नहीं है। इस प्रकार से जब मुमुक्षु अशरणानुप्रेक्षा करता है तो उसमें सहज ही शुद्ध धर्माचरण द्वारा मोक्ष-प्राप्ति की प्रबल भावना जागती है। षट्स्थान चिन्तन से मोक्ष की प्रतीति और रुचि जाग्रत होती है पंचम अनुप्रेक्षा है-षट्स्थान चिन्तन। इस अनुप्रेक्षा से आत्मा के अपने अस्तित्व, जड़ से (कर्मपुद्गलों से) पृथक्त्व की प्रतीति होने पर तथा आत्मा अभी बद्धरूप में है, वह एक दिन अपने पुरुषार्थ से मुक्त हो सकता है, मोक्ष प्राप्त होने पर आत्मा अपने पूर्ण शुद्ध स्वरूप = स्वभाव में स्थित हो सकता है, ऐसा दृढ़ विश्वास होने पर मोक्ष-प्राप्ति की प्रबल भावना उबुद्ध होती है। वे छह स्थान इस प्रकार हैं(१) जीव (आत्मा) है, (२) वह अमूर्त है, इसलिए नित्य है, (३) वह कर्म का कर्ता है, (४) कर्मों का भोक्ता = क्षयकर्ता भी वही है, (५) सर्वकर्मक्षयरूप मोक्ष है, और (६) मोक्ष-प्राप्ति का उपाय भी है। इस प्रकार भेदविज्ञान की सत्यता हृदयंगम होने पर सर्वकर्मक्षयरूप मोक्ष प्राप्त करने की भावना प्रबल होती है। - इस प्रकार इन पंचविध अनप्रेक्षाओं से मोक्ष के प्रति श्रद्धा, प्रतीति, रुचि, प्रबल होने पर उसके प्रति निष्ठा जागती है, तथैव मोक्ष के प्रति उत्पन्न भावनाएँ मोक्षपुरुषार्थ की हेतु बनती हैं। मोक्षपुरुषार्थ के कथन और श्रवण से मोक्ष और उसके उपाय-अपाय आदि अंग हृदयंगम होने लगते हैं। और तब मुमुक्षु साधक ज्ञपरिज्ञा से मोक्ष के बाधक तत्त्वों को जानकर प्रत्याख्यानपरिज्ञा से उनका त्याग करके उपादेयपरिज्ञा से मोक्षपुरुषार्थ के लिए उद्यत होता है। सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्र-तपरूप मोक्षमार्ग की साधना-आराधना में पुरुषार्थ करने लगता है।' १. 'मोक्खपुरिसत्थो, भा. १' से भाव ग्रहण, पृ. ४२-४५, १६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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