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________________ २७६ कर्मविज्ञान : भाग ८ ४ सकता है। संसार-दशा से मुक्त होने का उपाय है- सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष की साध करना। इस प्रकार संसारानुप्रेक्षा से जीव में मोक्ष की इच्छा - भावना उत्पन्न होती है। शरीरानुप्रेक्षा भी मोक्ष में पुरुषार्थ करने की तमन्ना जगाती है दूसरी अनुप्रेक्षा है - शरीरानुप्रेक्षा । शरीर को लेकर पहले इसकी अशुचिता, क्षणभंगुरता, बाधाजनकता, जड़बन्धनता, बीभत्सता, मायाजाल आदि का चिन्तन करे। जैसे कि मृगापुत्र ने कहा था - " यह शरीर अनित्य (क्षणभंगुर ) है, अशुचिमय ( अपवित्र - गंदा ) है, अशुचि से उत्पन्न हुआ है और अशुचि ही उत्पन्न करता है । इस शरीर में अशश्व निवास है तथा यह दुःखों और क्लेशों का पात्र है । इस शरीर में क्षणभर भी मैं प्रसन्नता अनुभव नहीं करता । " " इसी प्रकार मुमुक्षु आत्मा भी इस शरीर की अपवित्रता और क्षणभंगुरता को देखकर तथा इसकी क्षणभंगुरतादुर्बलता पल-पल में बाधक बनती है, खिलाते -पिलाते भी यह शरीर धोखा दे देता है, देखते-देखते ही इसमें विकार उत्पन्न हो जाता है। जिन तत्त्वों से यह शरीर बना है, वे भी बहुत घिनौने हैं। ऊपर से चमड़ी का आवरण है, अन्दर में खोखला एवं भयंकर है, अपने आप में यह जड़ है। मैं अब तक इस शरीर के मोह में पड़कर तथा इसकी झूठी सुन्दरता पर लुब्ध होकर इसके लिए तथा इस शरीर से सम्बन्धित सजीव-निर्जीव पर-पदार्थों के लिए घोर कर्मबन्धन करता रहा । कारागार के समान अनेक शरीर धारण किये तथा आत्मा के निवास स्थानरूप इस शरीर से धर्माराधना करने के बदले तथा तप, त्याग, प्रत्याख्यान करके कर्मक्षय करने के बदले पापाराधना करके कर्मों का संचय किया । अतः अब इस मानव-शरीर से धर्माराधना करके मुक्ति प्राप्त करने तथा मुक्त, अशरीरी, परमात्मा बनने की साधना इस शरीर से करूँ। ऐसी शरीरानुप्रेक्षा अथवा अशुचि - अनुप्रेक्षा करने से भी मोक्ष-प्राप्ति के लिए पुरुषार्थ करने की तमन्ना जागती है । एकत्वानुप्रेक्षा भी मुमुक्षा के अन्तरंग कारण तृतीय अनुप्रेक्षा है - एकत्वानुप्रेक्षा । इस अनुप्रेक्षा में मुमुक्षु जीव यह चिन्तन करता है कि यह जीव अकेला ही (स्वयं ही ) कर्म करता है, कर्मबन्ध करता है और अकेला (स्वयं) ही कर्म भोगता है। साथ ही कर्मबन्धों को तोड़ने (निर्जरा के) या आते हुए कर्मों को रोकने (संवर) के लिए पुरुषार्थ भी अकेला ही करता है अर्थात् कर्मों का क्षय भी स्वयं ही करता है और कर्मों से सर्वथा मुक्त, सिद्ध, बुद्ध भी अपने ही पुरुषार्थ से होता है । जीव स्वयं ही अपने स्वरूप - स्वभाव में स्थित होकर शुद्ध आत्म-परिणाम करके, शुद्ध भावों में रमण करके पूर्णता को, परमात्मपद को प्राप्त कर सकता है। दूसरा कोई १. इमं सरीरं अणिच्चं असुई - असुइं असुइसंभवं । असासयावासमिणं दुक्खके साण भायणं ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only - उत्तरा १९, १२ गा. www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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