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________________ ३ २६४ कर्मविज्ञान : भाग ८ गहराई में पहुँचना आवश्यक है । ऊपर-ऊपर से जान लेने से तथ्य का सही आकलन नहीं हो पाता। दृष्टि, श्रद्धा या आस्था एवं तपःशक्ति की दृढ़ता का निर्माण हुए बिना मुमुक्षु व्यक्ति या तो वाह्य क्रियाकाण्डों या विकल्पों में ही अटककर रह जाता है या कोरे ज्ञान का सहारा लेकर स्वयं को झूटा आश्वासन देता रहता है अथवा संसार के मार्ग वाले पुण्य कार्यों को कर्मक्षयकारी सद्धर्म का,. मोक्ष का मार्ग समझकर असम्यक् दिशा में पुरुषार्थ करता रहता है। ' मोक्ष के लिए सम्यग्ज्ञानपूर्वक पुरुषार्थ का महत्त्व * जैनागमों में भी यत्र-तत्र सम्यग्ज्ञान के साथ पुरुषार्थ का महत्त्व बताया है"पहले (ज्ञपरिज्ञा से) बन्धन का परिज्ञान करके तदनन्तर उसके विषय में हेयोपादेय का बोध प्राप्त करो और फिर उस (कर्म) बन्धन को तोड़ने का पराक्रम करो।"" कोई भी साधक अपने सम्यक् पुरुषार्थ से ही कर्मबन्धनों को तोड़ सकता है, आते हुए नवीन क़र्मपुद्गलों को रोक (आनवनिरोध) कर सकता है। सद्पुरुषार्थ का महत्त्व बताते हुए 'उत्तराध्ययनसूत्र' में कहा गया है - "संयम और तपश्चरण से पूर्वकर्मों का क्षय करके सर्वदुःखों को नष्ट करने (सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होने) के लिए महर्षिगण पराक्रम करते हैं।” “कर्मों के (कर्मबन्ध के) हेतुओं ( कारणों) को दूर करके और क्षमा (क्षमाभाव तथा परीषहोपसर्गादि सहिष्णुता ) से यश (संयम) का संचय करके वह साधक पार्थिव शरीर को छोड़कर ऊर्ध्व दिशा (देवलोक या मोक्ष) की ओर गमन करने का पराक्रम करता है।" नमिराजर्षि ने भी संसार से मुक्त होने के पुरुषार्थ की सफलता बताते हुए कहा- "तपरूपी वाणों से कर्मरूपी कवच का भेदन करके बाह्य संग्रामविरत व अन्तर्युद्ध का विजेता मुनि संसार से परिमुक्त हो जाता है । " ३ इन आगम-प्रमाणों से स्पष्ट प्रतिध्वनित होता है कि व्यक्ति को देवलोक-प्राप्ति या मोक्ष-प्राप्ति में मुख्य कारण उसका स्वयं का सत्पुरुषार्थ है । जो व्यक्ति कर्मबन्ध और उसके कारणों को समझकर तोड़ने का तथा उसके कारणों से बचने का पुरुषार्थ करता है, वही मोक्ष प्राप्त कर सकता है। क्या आत्मा के पुरुषार्थ के बिना स्वतः कर्मपुद्गल बँध जाते हैं? ऐसा तो नहीं होता । जिस प्रकार व्यक्ति के स्वकीय १. 'अपने घर में' से भाव ग्रहण, पृ. १२० २. बुज्झिज्ज तिउट्टेज्जा, बंधणं परिजाणिया । ३. (क) खवित्ता पुव्व कम्माई संजमेण तवेण य। सव्वदुक्खप्पहीणट्टा पक्कमंति महेसिणो ॥ (ख) विगिंच कम्मणो हेउ, जसं संचिणु खतिए । सरीरं पाढवं हिच्चा उड्ढं पक्कमइ दिसं ॥ (ग) तव - नारायजुत्तेण भित्तूण कम्मकंचुयं । मुणी विगय-संगामो भवाओ परिमुच्चए ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only - उत्तरा., अ. २८/३६ - वही ३/१३ www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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