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________________ ४ २६० ॐ कर्मविज्ञान : भाग ८३ अन्तर्मुहूर्त में ही जीव तेरहवें गुणस्थान में पहुँचकर वीतराग एवं सयोगी केवली हो जाता है। तेरहवें गुणस्थान में योगों की प्रवृत्ति होती है और चार अघातिकर्म शेष रहते हैं। कषायरहित योगों के कारण केवल प्रकृतिवन्ध व प्रदेशबन्ध होता है; स्थितिवन्ध और रसबन्ध ( कर्मों की स्थिति तथा उनमें फल देने की शक्ति वाला वन्ध) नहीं होता। फलतः नाममात्र का बन्ध होता है, पहले समय में बन्ध, दूसरे समय में वेदन और तीसरे समय में विना फल दिये स्वयमेव वे झड़ जाते हैं। (१५) सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष- चौदहवें गुणस्थान में वेदनीय, नाम, गोत्र, ये तीन अघातिकर्म आयुकर्म के क्षय होने के साथ ही क्षय हो जाते हैं। मन-वचन-काया की प्रवृत्तिरूप योगों का निरोध हो जाता है। अतः सर्वकर्मों का क्षय हो जाना अर्थात् सर्वकर्मों से मुक्त हो जाना मोक्ष है। मोक्ष होते ही जीव (आत्मा) सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, सर्वदुःखमुक्त हो जाता है। आठ ही कर्मों के नष्ट हो जाने से मोक्ष प्राप्त जीव में ८. गुण प्रगट होते हैं-(१) अनन्त ज्ञान, (२) अनन्त दर्शन, (३) अनन्त अव्यावाध सुख, (४) अनन्त शक्ति, (५) यथाख्यात चारित्र, (६) अक्षयत्व, (७) अरूपित्व अमूर्त्तत्व, (८) अगुरुलघुत्व। ये पन्द्रह अतिदुर्लभ मोक्ष की प्राप्ति के अंग ( उपाय) हैं। इनमें से जितने-जितने अंग जिस जीव को प्राप्त हो गए हैं, उससे आगे के अंगों के लिए अप्रमत्तभाव से पुरुषार्थ करना चाहिए । विशेषतः प्रमादरहित होकर सम्यक् चारित्र की प्राप्ति तथा उससे आगे के लिए सतत प्रयत्न करना ही मोक्षपुरुषार्थ की सफलता है । ' शीघ्र मोक्ष-प्राप्ति के लिए किन-किन बातों में किस-किस प्रकार का पुरुषार्थ करना चाहिए? शीघ्र मोक्ष-प्राप्ति के पुरुषार्थ में सर्वप्रथम दृष्टि सम्यक् और स्पष्ट होनी चाहिए। आज अधिकांश लोग मोक्ष के विषय में लम्बी-चौड़ी चर्चा कर देते हैं। वे मोक्ष के विषय में घंटों प्रवचन कर सकते हैं, परन्तु जहाँ मोक्ष के विषय में आचरण का - पुरुषार्थ का पराक्रम करने का प्रश्न आता है, वहाँ उनके पैर लड़खड़ाने लगते हैं। यह ज्ञान और आचरण की दूरी, आज की नहीं, चिरकालिक है। महाभारत के खलनायक दुर्योधन के द्वारा इसी प्रकार के उद्गार महारभारत में अंकित हैं“जानामि धर्मं, न च मे प्रवृत्तिः, जानाम्यधर्मं, न च मे निवृत्तिः । " - मैं धर्म को जानता हूँ, परन्तु उसे कर नहीं पाता; मैं अधर्म को भी जानता हूँ, किन्तु उसे छोड़ नहीं पाता। यह बहुत पुरानी बात है - आदमी मोक्ष को अच्छा जानता है, परन्तु मोक्ष के विषय में पुरुषार्थ नहीं कर पाता, दूसरी ओर, वह मोह-मूर्च्छा-ममता को बुरी मानता है, किन्तु उन्हें छोड़ नहीं पाता । निष्कर्ष यह है कि आदमी अच्छे को अच्छा १. (क) जैनसिद्धान्त बोल संग्रह, भा. ५. वोल ८५० (ख) वही, भा. २, पृ. २०७ = Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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