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________________ ॐ शीघ्र मोक्ष-प्राप्ति के पुरुषार्थ की सफलता ॐ २५९ ॐ स्वरूप का तथा उनमें से ज्ञेय-हेय-उपादेय का ज्ञान करके आत्म-हित की ओर प्रवृत्ति करना सच्चा विज्ञान है, जो मोक्ष-प्राप्ति के अभ्यासी के लिए आवश्यक है। (११) सम्यक्त्व (सम्यग्दर्शन)-सर्वज्ञ तीर्थंकरों द्वारा प्ररूपित पारमार्थिक जीवादि तत्त्वों पर श्रद्धान करना व्यवहार-सम्यक्त्व है। निश्चयदृष्टि से शुद्ध आत्म-तत्त्व के प्रति श्रद्धा, प्रतीति, रुचि होना सम्यग्दर्शन है, उसमें प्रेरित एवं मार्गप्रदर्शित करने वाले अरिहन्त देव, निर्ग्रन्थ गुरु एवं तत्प्रज्ञप्त शुद्ध धर्म के प्रति श्रद्धा-भक्ति-वहुमान रखना व्यवहार सम्यग्दर्शन है। यह सम्यक्त्व बहुत ही दुर्लभ है, इसकी प्राप्ति के बिना जीव को मोक्ष पद प्राप्त होना दुष्कर है। (१२) शील-सम्प्राप्ति (सम्यक्चारित्र-प्राप्ति)-बहुत-से जीव सम्यक्त्व प्राप्त करके भी चारित्र प्राप्त नहीं कर पाते। चारित्र-प्राप्ति के बिना मनुष्य पूर्ण मुक्ति (सर्वकर्ममुक्ति) प्राप्त नहीं कर सकता। यही कारण है कि विज्ञान, सम्यक्त्व और चारित्र; दूसरे शब्दों में सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यकचारित्र, ये तीनों समन्वित होकर मोक्ष का मार्ग' बताया गया है। इन तीनों की प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है। (१३) क्षायिकभाव-उन-उन घातिकर्मों के क्षय होने पर प्रकट होने वाला परिणाम क्षायिकभाव है। बहुत-से मानव साधक चारित्र अंगीकार करके भी क्षायिकभाव प्राप्त नहीं कर पाते। क्षायिकभाव प्राप्त हुए बिना सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता। क्षायिकभाव के नौ प्रकार हैं-(१) केवलज्ञान, (२.) केवलदर्शन, (३) दानलब्धि, (४) लाभलब्धि, (५) भोगलब्धि, (६) उपभोगलब्धि, (७) वीर्यलब्धि, (८) सम्यक्त्व, और (९) चारित्र। ये नौ • क्षायिकभाव सर्वघाती चार कर्मों के सर्वथा क्षय होने पर प्रकट होते हैं। ये नौ भाव सादि-अनन्त हैं। (१४) केवलज्ञान-पूर्वोक्त क्रम से विकास करता हुआ जीव जब बारहवें गुणस्थान में पहुँचकर सर्वप्रथम आत्मा के मूलगुणों के घात करने वाले घातिकर्मों से सर्वप्रथम मोहनीयकर्म का सर्वथा क्षय करता है। तदनन्तर शेष तीनों घातिकर्मों ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय) का एक साथ सर्वथा क्षय हो जाता है। ज्ञानावरणीय कर्म नष्ट होने पर आत्मा के ज्ञानगुण पर आया हुआ आवरण सदा के लिये हट जाता है और वह अनन्त ज्ञान (केवलज्ञान) प्राप्त कर लेता है। दर्शनावरणीय का नाश होने पर आत्मा का अनन्त दर्शनरूप गुण प्रगट होता है। अतः वह अनन्त दर्शन (केवलदर्शन) से युक्त हो जाता है। मोहनीयकर्म के नष्ट होते ही आत्मा में अनन्त चारित्रगण प्रगट होता है और अन्तरायकर्म नष्ट होते ही उसमें अनन्त आत्म-शक्ति प्रगट होती है। मोक्ष-प्राप्ति के लिये ये चारों अनन्त ज्ञानादि प्राप्त होने अतीव आवश्यक हैं। बारहवें गुणस्थान के प्राप्त होने पर २. सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः। -तत्वार्थसूत्र, अ. १, सू. १ Jain Education' International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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