SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 260
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ॐ २४० ॐ कर्मविज्ञान : भाग ८ ॐ प्रभु की अनन्य-भक्ति से अलभ्य लाभ ___ ऐसी (अव्यभिचारिणी) अनन्य-भक्ति का आध्यात्मिक लाभ बताते हुए 'भगवद्गीता' में कहा गया-“हे अर्जुन ! इस प्रकार की अनन्य-भक्ति (परमात्मा के साथ एकीभाव से युक्त भक्ति) से मैं (परमात्मा) तत्त्वतः जाना-देखा जा सकता है तथा हे परन्तप ! अन्तर्ध्यान से वह (अनन्य-भक्त) मुझमें (परमात्म-तत्त्व में) प्रवेश भी कर सकता है। फलितार्थ यह है कि अनन्य-भक्ति से परमात्मा की भक्ति का वास्तविक उद्देश्य सिद्ध हो सकता है।" सुलसा श्राविका अनन्य-भक्ति की परीक्षा में उत्तीर्ण इसका ज्वलन्त प्रमाण है-'भगवतीसूत्र' में उक्त सुलसा श्राविका की भगवान महावीर के प्रति अनन्य-भक्ति की परीक्षा में पूर्ण सफलता की घटना। ___ उन दिनों भगवान महावीर चम्पापुरी में पधारे हुए थे। उस दौरान उनके विशिष्ट उपासक अम्बड़ परिव्राजक ने उनके चरणों में उपस्थित होकर निवेदन किया-“भगवन् ! मैं राजगृही जा रहा हूँ। आपका कोई सन्देश हो तो फरमाइए।" भगवान ने कहा-“अम्बड़ ! राजगृही में राजा श्रेणिक के रथ-चालक सारथी की धर्मपत्नी सुलसा श्राविका अत्यन्त भावनाशील है एवं अर्हद्-भक्ति में लीन रहती है। उसे मेरा धर्म-सन्देश कहना।" ___ अम्बड़ प्रभु का सन्देश शिरोधार्य करके चल पड़ा। उसके मन में एक विचार स्फरित हुआ-देवेन्द्र-नरेन्द्र-पूज्य त्रिलोकीनाथ विश्ववन्द्य वीतराग परमात्मा महावीर ने एक तुच्छ महिला को धर्म-सन्देश दिया। अतः उसमें क्या विशेषता है? मुझे उसकी प्रभु-भक्ति की परीक्षा करनी चाहिए। यह सोचकर राजगृही पहुँचते ही अम्बड़ परिव्राजक ने वैक्रियलब्धि से क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु और महेश का रूप बनाया। राजगृही में सर्वत्र उसकी शोहरत हुई। हजारों नर-नारी झुंड के झुंड उसके दर्शनार्थ पहुँचे, लेकिन सुलसा को कई महिलाओं द्वारा चलने के लिए प्रेरित किये जाने पर भी वह कतई नहीं गई, शान्तभाव से बैठी रही। काफी प्रतीक्षा के बाद अम्बड़ ने साक्षात् महावीर का रूप बनाया। लोगों ने सुलसा से कहा-“अब तो तेरे महावीर प्रभु पधारे हैं। अब तो चल, दर्शन कर ले।" इस पर प्रभु के प्रति अनन्य-भक्ति के फलस्वरूप प्रभु को तत्त्वतः जानने-देखने तथा अन्तर्ध्यान से प्रभु के स्वरूप में तन्मय होने की उपलब्धि-प्राप्त सुलसा ने उत्तर दिया-“महावीर प्रभु राजगृही में नहीं पधारे हैं। राजगृही में ही नहीं, इससे दूर-दूर तक महावीर प्रभु पधारे होते तो मेरी अन्तरात्मा अवश्य साक्षी देती। प्रभु के प्रति अनन्य-भक्ति १. भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन ! ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्वेन, प्रवेष्टुं च परन्तप ! -भगवद्गीता, अ. ११, श्लो. ५४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy