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________________ भक्ति से सर्वकर्ममुक्ति: कैसे और कैसे नहीं ? २३९ ‘भगवद्गीता' में अव्यभिचारिणी भक्ति कहा गया है। इसका भावार्थ है-मेरे (वीतराग परमात्मा के) प्रति अनन्यनिष्ठ योगों (मन-वचन-काया की प्रवृत्तियों) के एकीभाव से यानी इन तीनों को अन्य भावों (विभावों तथा पर- भावों) में तथा अन्य कार्यों, विचारों आदि में न लगाने से भक्ति अव्यभिचारिणी और अनन्या होती है। इसकी साधना के लिए (अपरिपक्व अवस्था में ) एकान्त पवित्र प्रदेश (स्थान) में रहना और जनता के लौकिक सांसारिक कार्यों में अरति = अरुचि या अनासक्ति' होनी चाहिए। आज्ञाराधनारूपा अनन्य भक्ति के ज्वलन्त उदाहरण परमात्मा के प्रति अनन्य-भक्ति के विभिन्न पहलुओं से जैनागमों में कई प्रमाण मिलते हैं । आज्ञाराधनारूप अनन्य भक्ति के विषय में गणधर गौतम स्वामी का ज्वलन्त उदाहरण प्रसिद्ध है। गणधर गौतम स्वामी इतने ज्ञानी, विशिष्ट लब्धियों और उपलब्धियों के धारक तथा श्रमणसंघ के ५० हजार साधु-साध्वियों के अधिपतिअनुशास्ता एवं भगवान महावीर के पट्टशिष्य होते हुए भी निरभिमानी, विनय-भक्ति से ओतप्रोत एवं भगवान महावीर की प्रत्येक आज्ञा को शिरोधार्य करते थे । 'भगवतीसूत्र' में और भी अनेक साधुओं की विनयरूप तथा आज्ञाराधनारूप भक्ति के उदाहरण मिलते हैं। मेघकुमार मुनि को संयम में स्थिर करने के पश्चात् उसने भगवान महावीर के समक्ष प्रतिज्ञा ली कि “आज से मेरी दो आँखों के सिवाय मेरा सारा ही तन-मन-बुद्धि-हृदय आदि आपकी तथा संघ की सेवा (भक्ति) में समर्पित है।" यह समर्पण-भक्ति का ज्वलन्त उदाहरण है। अनाथी मुनि के किसी भी उपाय से नेत्र- पीड़ा शान्त न होने पर भगवान महावीर के संघ में क्षान्त, दान्त, निरारम्भ निर्ग्रन्थ व संयममार्ग के लिए समर्पित होने का संकल्प किया था, जिसके कारण प्रातःकाल होने से पूर्व उनकी चक्षु - पीड़ा शान्त हो गई थी । आज्ञाराधनारूपा भक्ति के विषय में ‘आचारांगसूत्र' में स्पष्ट विधान है - " आणाए अभिसमेच्चा अकुओ भयं । " --जो भगवदाज्ञारूप भक्ति में स्थिर है, वह अकुतोभय रहता है । उसे संसार की कोई भी घटना या व्यक्ति अथवा प्राणी भयाक्रान्त नहीं कर सकता। जहाँ भगवान का हृदय मैं निवास हो, वीतराग- आज्ञा में निष्ठा हो, वहाँ किसी से भी किसी बात का भय नहीं होता। जहाँ प्रभु का सन्देश रग-रग में समाया हो, वहाँ सन्देह को अवकाश कहाँ ? २ १. मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी । विविक्तदेश सेवित्वमरतिर्जनसंसदि ॥ -भगवद्गीता १३/१० २. (क) देखें- औपपातिक, भगवतीसूत्र आदि में गौतम स्वामी के गुणों का उल्लेख (ख). देखें- ज्ञाताधर्मकथासूत्र का वह पाठ - "भंते ! मम दो अच्छीणि मोत्तूण अवसेसे का समणाणं निग्गंथाणं विसट्टेति । " (ग) देखें - उत्तराध्ययनसूत्र, अ. २० में अनाथी मुनि का जीवनवृत्त (घ) आचारांग, श्रु. १, अ. १, उ. ३, सू. ३८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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