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________________ निश्चयदृष्टि से मोक्षमार्ग : क्या, क्यों और कैसे ? २०५४ यत्किंचित् आचरण, आत्मौपम्यभाव या प्राणिमात्र पर समभाव, सद्भाव आदि उनमें प्रायः नहीं होता। ऐसी स्थिति में उनका तत्त्वज्ञान, तत्त्वरुचि या तत्त्वविश्वास आत्म-समभावरूप चारित्र के अभाव में मोक्षमार्ग का साधक नहीं हो सकता । जैनजगत् के मूर्धन्य विद्वान् एवं अध्यात्म-तत्त्वचिंतक उपाध्याय गुरुदेव पुष्कर मुनि जी महाराज के पास एक बार जैनदर्शन और जैनतत्त्वज्ञान का फ्रांसीसी विद्वान् तत्त्वज्ञान की चर्चा करने आया। जैन आगमों के कई पाठ उसे कण्ठस्थ थे। तत्त्वरुचि भी गहरी थी। तत्त्वचर्चा जब पूर्ण हुई तो गुरुदेव श्री ने उससे पूछा - " आप जैन आगमों के इतने गहन विद्वान् हैं, माँसाहार तो नहीं करते होंगे ?” उसने नम्रतापूर्वक स्वीकार किया कि " मैंने माँसाहार छोड़ा नहीं है । मैंने तो जैनतत्त्वज्ञान का अध्ययन केवल दर्शनशास्त्र पढ़ाने की दृष्टि से किया है।" यह देखकर आप अनुमान लगा सकते हैं, व्यवहार सम्यग्दर्शन के साथ निश्चय सम्यग्दर्शन का आधार अवश्य होना चाहिए ताकि सम्यग्दर्शन का वास्तविक उद्देश्य पूर्ण हो । व्यवहार सम्यग्दर्शन के अन्तर्गत दशविध रुचिं प्रश्न होता है - व्यवहार सम्यग्दर्शन के लक्षण में जीवतत्त्व के सिवाय अन्य तत्त्वों पर श्रद्धा न करने का बताया है, उसका रहस्य क्या है ? इसका समाधान यह है कि जो व्यक्ति मोक्षमार्ग में प्रथम ही प्रवेश करते हैं, उनकी बुद्धि अनादिकाल से भेदवासना वासित होती है। अतः वे व्यवहारनय से साध्य-साधन के भेद का अवलम्बन लेकर सुखपूर्वक धर्म की आराधना करते हैं। नौ तत्त्वों तथा षट्द्रव्यों में हेय, ज्ञेय और उपादेय का साध्य - साधना की भिन्नता का ज्ञान (ज्ञपरिज्ञा से ) करते हैं। प्रत्याख्यान परिज्ञा से हेय का त्याग करते हैं। “भिन्नरुचिर्हि लोकः ।" इस लोकोक्ति के अनुसार व्यवहार सम्यग्दर्शनी भी भिन्न-भिन्न रुचि वाले होते हैं। यही कारण है कि 'उत्तराध्ययनसूत्र' में भिन्न-भिन्न प्रकार के तत्त्वरुचि वाले १० भेद व्यवहार सम्यग्दर्शन के बताये हैं। वे इस प्रकार हैं - ( 9 ) निसर्गरुचि, (२) उपदेशरुचि, (३) आज्ञारुचि, (४) सूत्ररुचि, (५) बीजरुचि, (६) अभिगमरुचि, (७) विस्ताररुचि, (८) क्रियारुचि, (९) संक्षेपरुचि, और (१०) धर्मरुचि । वे साध्यरूप निश्चय मोक्षमार्ग और साधनरूप व्यवहार मोक्षमार्ग का भिन्न साध्य-साधन जानकर आत्म-लक्षी होकर प्रवृत्ति करते हैं। तत्त्व, आप्त (देव), गुरु, धर्म और शास्त्र के विषय में वे भेदविज्ञानपूर्वक प्रवृत्त होते हैं। जैसे- यह श्रद्धान करने योग्य है, यह श्रद्धान करने योग्य नहीं है, यह श्रद्धान करने वाला (आत्मा) है। यह जानने योग्य है, यह जानने योग्य (ज्ञेय) नहीं है । यह ज्ञान है, यह ज्ञाता है। यह आचरण करने योग्य है, यह आचरण करने योग्य नहीं है, यह आचरण है और यह आचरण करने वाला है। इसी प्रकार कर्त्तव्य - अकर्त्तव्य, कर्ता और कर्म को भिन्न-भिन्न जानने से उनका उत्साह बढ़ जाता है और वे धीरे-धीरे मोह को उखाड़ते जाते हैं। कदाचित् Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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