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________________ ॐ २०४ 8 कर्मविज्ञान : भाग ८ 8 हैं। जबकि 'जैनदर्शन' ने जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आम्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष, ये नौ तत्त्व या कहीं-कहीं पुण्य-पाप को आस्रव और बन्ध के अन्तर्गत मानकर ७ तत्त्व माने हैं। इन सब दार्शनिकों के विभिन्न प्रकार से तत्त्व मान गये हैं, इन तत्त्वों में अधिकतर तत्त्वों की पूर्वोक्त लक्षणयुक्त सम्यग्दर्शन से और मोक्ष से कोई संगति तथा प्रायः जड़-प्रधान होने से चैतन्यमूलक मोक्ष के साथ कोई कार्य-कारण सम्बन्ध नहीं बैठता। इसी विवाद को लक्ष्य में रखकर ‘समयसार की तात्पर्य वृत्ति' में निश्चयनय की दृष्टि से आत्मा (जीव) के सिवायं तथा संवर-निर्जरारूप साधन और मोक्षरूप साध्य के सिवाय आस्रवादि को भिन्न करके एकमात्र विशुद्ध ज्ञान-दर्शन स्वभावरूप निज परम (शुद्ध) आत्मा (जीवतत्त्व) में रुचि, प्रतीति या श्रद्धा करना (निश्चय) सम्यग्दर्शन है। अथवा शुद्ध आत्मा (जीवतत्त्व या जीवास्तिकाय) ही उपादेय है, ऐसा श्रद्धान, रुचि या निश्चय करना निश्चयदृष्टि से सम्यग्दर्शन है। ‘मोक्षमार्ग-प्रकाश' ने इसी का समर्थन किया है"व्यवहार सम्यग्दर्शन के लक्षण में सात तत्त्वों पर श्रद्धान करने को सम्यग्दर्शन कहा है, सात तत्त्वों पर श्रद्धान का नियम व्यवहार सम्यग्दर्शन के लक्षण में कथंचित् उपादेय हो सकता है; किन्तु निश्चयदृष्टि से 'पर' से भिन्न निज शुद्ध आत्म-तत्त्व (जीवतत्त्व) का श्रद्धान ही शुद्ध सम्यग्दर्शन है। रागादि विकल्पोपाधिरहित चित्-चमत्कार भावना से उत्पन्न मधुर रस के आस्वादरूप सुखधारक मैं हूँ।" ऐसा निश्चय सम्यग्दर्शन है।' तत्त्वश्रद्धान या तत्त्वरुचि रूप दर्शन केवल वाद-विवाद के लिए, तर्क-वितर्क के लिए हो, दूसरों को शास्त्रार्थ में पराजित करने के लिए हो अथवा तत्त्वज्ञान प्राप्त करके दूसरों को अध्यापन कराने, सिखाने मात्र के लिए, ऐसे तत्त्वज्ञान से या तत्त्वरुचि से मोक्ष-प्राप्ति नहीं हो सकती। क्योंकि एक तो उक्त प्रकार के तत्त्वज्ञान का तत्त्वरुचि के पीछे आत्मा (जीवतत्त्व) के प्रति जो आध्यात्मिक विकास का रुझान होना चाहिए, वह नहीं होता। ऐसी तत्त्वरुचि या तत्त्वज्ञान की उपलब्धि तो वर्तमान युग के कई दर्शनशास्त्र के प्रोफेसरों, लेक्चरारों में भी होती है, परन्तु आत्मा के प्रति उनका विश्वास, श्रद्धान, रुचि, आत्मवत् सर्वभूतेषु का सक्रिय १. (क) पंचविंशति तत्त्वज्ञो यत्रकुत्राश्रमे रतः। जटी मुण्डी शिखीवाऽपि, मुच्यते नात्र संशयः।। (ख) वैशेषिकाणां द्रव्य-गुण-कर्म-सामान्य-विशेष-समवायाख्याः षट्पदार्था-स्तत्वतपाऽभिप्रेताः। ___ -स्याद्वाद मंजरी में उद्धृत, पृ. ४८ (ग) द्रव्य-गुण-कर्म-सामान्य-विशेष-समवायाऽभावाः सप्तपदार्थाः। । -तर्कसंग्रह (घ) प्रमाण-प्र मे य-संशय-प्रयोजन-दृष्टान्त-सिद्धान्तावयव-तर्क-निर्णय-वाद-जल्प... वितण्डा-हेत्वाभास-छल-जाति-निग्रह-स्थानानां तत्त्वज्ञानान्निश्रेयसाधिगमः। . -गौतमसूत्र १/१/१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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