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________________ ॐ २०२ 8 कर्मविज्ञान : भाग ८ * बाह्य क्रियाएँ या बाह्य तप आदि साक्षात् मोक्ष के अंग नहीं हो सकते ___ यही कारण है कि आध्यात्मिक क्षेत्र में आत्मा को ही मुख्य रखकर सारी साधनाएँ बताई गई हैं। यहाँ तक कि बाह्य शारीरिक, मानसिक क्रियाएँ तथा बाह्य तप आदि क्रियाकाण्ड भी शरीराश्रित होने से साक्षात् मोक्ष के अंग नहीं बन सकते। हाँ, यदि व्यवहारनय की दृष्टि से ये परम्पर या मोक्ष के अंग माने जायें तो किसी को किसी प्रकार की आपत्ति नहीं हो सकती, किन्तु निश्चयनय की दृष्टि से तो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये साक्षात् मोक्ष के अंग हैं, कारण हैं। आत्मा का मोक्ष कब होगा? जब अशुभ उपयोग से हटकर शुभ उपयोग में और अन्ततः शुभोपयोग से हटकर शुद्धोपयोग में स्थिर हो जायेगा, तभी वस्तुतः उसका मोक्ष हो सकेगा। शुद्धोपयोग से ही मोक्ष-प्राप्ति, शुभ-अशुभ उपयोग से नहीं शुद्धोपयोग के लिए शुभ और अशुभ दोनों आम्रवद्वारों को बन्द करना पड़ेगा। यदि पाप से मोक्ष की उपलब्धि नहीं हो सकती तो पुण्य से भी मोक्ष की उपलब्धि नहीं हो सकती। भले ही पुण्य कुछ काल के लिए मुमुक्षु साधक का विश्राम-स्थल बन जाये, परन्तु वह उसका ध्येय नहीं बन सकता। शुभोपयोग केवल अशुभोपयोग की निवृत्ति के लिए होता है, शुद्धत्व की प्राप्ति के लिए नहीं। अध्यात्मशास्त्र का एकमात्र ध्येय है-वीतराग भाव या स्व-स्वरूप में अवस्थिति या शुद्ध आत्म-स्वरूप की उपलब्धि। अपने स्वरूप में अवस्थिति या स्व-स्वरूप की उपलब्धि को ही जैनदर्शन सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्र कहता है। निश्चयदृष्टि से सम्यग्दर्शन : आत्म-स्वरूप पर श्रद्धान या विश्वास निश्चयदृष्टि से सम्यग्दर्शन क्या है? आत्म-स्वरूप का विश्वास, आत्म-स्वरूप की प्रतीति, आत्म-स्वरूप या आत्म-सत्ता पर दृढ़ आस्था होना ही सम्यग्दर्शन है। वस्तुतः सम्यग्दर्शन आत्मा के शुद्ध स्वरूप का एक दृढ़ निश्चय है कि मैं कौन हूँ ? मैं क्या हूँ? मैं कैसा हूँ ? मेरा शुद्ध स्वरूप क्या है ? तात्पर्य यह है कि मैं हूँ पर पूर्ण प्रतीति के साथ दृढ़ विश्वास करना ही तथा पूर्वोक्त आत्म-विषयक प्रश्नों का अन्तिम निर्णय-निश्चय करना ही सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दर्शन का उद्देश्य है-जड़ और चेतन का, स्व और पर का, आत्मा और शरीरादि आत्म-बाह्य पदार्थों का भेदविज्ञान करना। जब तक भेदविज्ञान अन्तर्हदय से नहीं होगा, तब तक यह नहीं कहा जा सकता कि साधक को स्व-स्वरूप की उपलब्धि हो गई है। स्व-स्वरूपोपलब्धि की पहचान : भेदविज्ञान से ही स्व-स्वरूप की उपलब्धि की पहचान यह है कि उससे आत्म-बोध और चेतना-बोध भलीभाँति हो जाता है। वह आत्मा निश्चय कर लेता है कि 'मैं शरीर, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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