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________________ @ निश्चयदृष्टि से मोक्षमार्ग : क्या, क्यों और कैसे? @ २०१ . रहता है-आत्मा में, अतः उसका मार्ग भी आत्मा में ही रहेगा। इसी दृष्टि से प्राचीन आचार्यों ने भेददृष्टि से मोक्षमार्ग को सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यकचारित्र रूप बताया, किन्तु अभेद (निश्चय) दृष्टि से इन तीनों को आत्मा के निजस्वरूपमय बताये। फिर ये तीनों आत्मा से अलग कैसे रह सकते हैं ? अतः मोक्ष और मोक्ष का मार्ग दोनों सदा आत्मा में ही रहते हैं, आत्मा से कहीं बाहर नहीं रहते। स्थूल भौतिक क्षेत्र में जब कारण और कार्य में देश, काल का व्यवधान नहीं होता है, तब आत्मा के आध्यात्मिक क्षेत्र में इस सिद्धान्त से विपरीत कार्य और कारण में देश, काल का व्यवधान कैसे हो सकता है? मोक्ष आत्मा का कार्य है, और सम्यग्दर्शनादि धर्म मोक्ष का कारण है। मोक्ष और मोक्ष का साधन रत्नत्रयरूप धर्म दोनों ही आत्म-स्वरूप हैं। अतः सम्यग्दर्शनादि धर्म आत्म-स्वरूप है, तो उनका कार्य मोक्ष भी आत्म-स्वरूप ही होना चाहिए। अतः मोक्ष और मोक्ष का साधन रत्नत्रयरूप धर्म आत्मा में ही रहते हैं, कहीं बाहर नहीं। जहाँ कहीं आगमों या ग्रन्थों में लोकाग्र भाग में मोक्ष का स्थानरूप से उल्लेख है, वह व्यावहारिक दृष्टि से औपचारिक कथन है। निष्कर्ष यह है कि जब आत्म-स्वरूप भूत मोक्ष का स्थान (निवास) आत्मा में ही है, तब उसका साधन (कारण या मार्ग) भी आत्मा में ही होगा। ऐसा कदापि नहीं हो सकता कि आत्मा कहीं रहे, उसका मोक्ष कहीं रहे और उसका मार्ग या उपाय कहीं अन्यत्र रहे। जैसे जड़ की क्रियाओं का आधार जड़तत्त्व होता है, वैसे चेतन की क्रियाओं का आधार चेतनतत्त्व ही हो सकता है। शरीर की तथा शरीराश्रित चेष्टाओं और क्रियाओं को जैनदर्शन आस्रव की कोटि में मानता है, क्योंकि वे जड़ की क्रियाएँ हैं, आत्मा के निजस्वरूप की क्रियाएँ नहीं हैं। जो आत्मा के निजस्वरूप की क्रियाएँ होती हैं, वे ही मोक्षमार्ग बनती हैं, वे हैं आत्मा के सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप की क्रियाएँ। आशय यह है सम्यग्दर्शनादि की साधना के मूल में शुद्धोपयोग एवं शुद्ध ज्ञानचेतना की क्रियाशीलता ही आत्मा के निजस्वरूप की क्रियाएँ हैं, वे ही मोक्ष की साधिका हो सकती हैं। आत्मा से भिन्न जो शरीरादि की जड़ क्रियाएँ मोक्ष प्रदान नहीं कर सकतीं। अध्यात्मवादी जैनदर्शन का कथन है कि जब शरीर भी (औदारिक तैजस् कार्मण) मोक्ष में साथ नहीं जाते, शरीराश्रित मन, वचन, इन्द्रियाँ, बुद्धि आदि तथा कर्मपुद्गल या अन्य कोई भी वेश, पात्र, उपकरणादि, जो शरीर से सम्बद्ध हैं यहीं रह जाते हैं, तब ये आत्म-बाह्य जड़तत्त्व मोक्ष के कारण कैसे हो सकते हैं ? १. 'अध्यात्म प्रवचन' से भाव ग्रहण, पृ. ३१७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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