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________________ ॐ मोक्षमार्ग का महत्त्व और यथार्थ स्वरूप * १८५ * तामसिक पदार्थों का निःसंकोच सेवन करते हैं, तब उन्हें मोक्ष कैसे हो सकता है ? बल्कि मद्य, माँस आदि त्रसजीववधजन्य पदार्थों के सेवन से संसार में ही परिभ्रमण या निवास करना होगा। वास्तव में देखा जाए तो मोक्ष तो ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप की भावपूर्वक आराधना-साधना से ही हो सकता है।' केवल स्व-मत-स्वीकार से सर्वदुःख-मुक्ति का आश्वासन कितना झूठा ? प्राचीनकाल में भारतवर्ष में विभिन्न मतवादी दार्शनिक मोक्ष का अर्थ लोगों को यही समझाते थे कि सर्वदुःखों से मुक्त हो जाना अथवा सर्वदुःखों का अन्त कर देना मोक्ष है। इस परिभाषा का अनुसरण मुख्यतया सांख्य, योग तथा बौद्धदर्शन करते थे। मोक्ष की इसी परिभाषा को बताकर वे लोगों को अपने मत, पंथ या वाद की ओर आकर्षित करने के लिए इस प्रकार कहते थे-तुम चाहे गृहस्थ (गृहवासी) हो, चाहे आरण्यक (वनवासी) अथवा पर्वतीय तापस हो, योगी हो, चाहे किसी भी वेष में प्रव्रजित हो, हमारे द्वारा प्रवर्तित (प्रचलित) या हमारे माने हुए दर्शन या वाद को स्वीकार कर लोगे तो शारीरिक, मानसिक या आधिभौतिक, आधिदैविक एवं आध्यात्मिक सभी दुःखों से सर्वथा मुक्त हो जाओगे। अथवा जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि, गर्भावास आदि दुःखों से छुटकारा पा जाओगे। हमारा मत या दर्शन स्वीकार करने पर संयम और तप-त्याग की कठोर चर्या अपनाना, शिरोमुण्डन, केशलुंचन, पैदल विचरण, नग्न रहना या मर्यादित वस्त्र रखकर सर्दी-गर्मी का परीषह सहना, जटा, मृगचर्म, दण्ड, कषायवस्त्र आदि धारण करना इत्यादि सब शारीरिक क्लेश जो दुःखरूप हैं, इन सबसे छुटकारा मिल जायेगा। क्या इस प्रकार मोक्ष-प्राप्ति के सस्ते मार्ग से मोक्ष प्राप्त हो सकता है? कभी नहीं। ___ गार्हस्थ्य प्रपंचों में रचे-पचे रहते हुए हिंसा, झूट, चोरी आदि दोषों से सर्वथा मुक्त न हो सकने वाले व्यक्ति को भी ये सभी दार्शनिक कर्मबन्धन से मुक्त होने (मोक्ष पाने) के लिए हिंसादि आम्रवों, मिथ्यात्व, प्रमाद, कषाय आदि कर्मबन्ध हेतुओं के त्याग किये बिना तथा यथाशक्ति तप, नियम, संयम, व्रत, प्रत्याख्यान या त्याग करने के बदले सिर्फ अपने मत या दर्शन को स्वीकार करने को मोक्ष का सीधा, सस्ता और सरल मार्ग बतला देते थे। १. खारस्स लोणस्स अणासएण। ते मज्ज-मंसं लसुणं च भोच्चा, अन्नत्थवासे परिकप्पयंति॥ -सूत्रकृतांग, श्रु. १, अ. ७, गा. १३, विवेचन, (आ. प्र. स., व्यावर), पृ. ३३७-३३८ २. (क) अगारमावसंता वि आरण्णा वा वि पव्वया। - इमं दरिसणमावन्ना सव्वदुक्खा विमुच्चती॥ -वही, श्रु. १, अ. १, उ. १, गा. १९ (ख) देखें-इसी गाथा का विवेचन (आ. प्र. स., ब्यावर) से प्रकाशित सूत्रकृतांग में, पृ. ४0 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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