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________________ ॐ १८४ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ८ * करने वालों को मोक्ष प्राप्त हो जायेगा। अतः न तो इन और ऐसे सभी अग्निकायारम्भ-जीवियों को मोक्ष मिल सकता है और न अग्नि-म्पर्शवादियों को; क्योंकि ये दोनों ही अग्निकायिक जीवों का तथा तदाश्रित अनेक त्रस जीवों का घात करते हैं। जीवहिंसा करने वालों का संसार में ही वास या भ्रमण हो सकता है, मोक्ष में नहीं। कर्मों को जलाने की शक्ति अग्नि में नहीं है, सम्यग्दर्शन-ज्ञानपूर्वक किये गए सम्यक्तपरूप भावाग्नि में है। उसी सम्यग्दर्शनादि चतुष्टय की साधना से मोक्ष-प्राप्ति हो सकती है। अतः मोक्ष का मार्ग अग्निकायारम्भ नहीं है, सम्यग्दर्शनादि चतुष्टय है।' जल-स्नान और अग्निहोत्र आदि संसार के मार्ग हैं, मोक्ष-प्राप्ति मार्ग नहीं अतः जल-स्नान और अग्निहोत्र आदि क्रियाओं से सिद्धि मानने वाले लोगों ने परीक्षा किये बिना ही (युक्तिरहित) इस सिद्धान्त को स्वीकार कर लिया है। इस प्रकार सिद्धि (सर्वकर्ममुक्ति) नहीं मिलती। बल्कि वस्तुतत्त्व के वोध से रहित वे लोग अपना ही घात (संसार-परिभ्रमणरूप विनाश) प्राप्त करते हैं। अतः आत्म-विद्यावान् (सम्यग्ज्ञानी-सम्यग्दृष्टि) वस्तु-स्वरूप का यथार्थरूप से ग्रहण करके यह विचार करे कि त्रस-स्थावर-प्राणियों की हिंसा (घात) से उन्हें (मोक्ष) सुख कैसे प्राप्त हो सकता है ? यह भलीभाँति समझ लेना चाहिए। , ___ कतिपय तथाकथित सुगम मोक्षवादी कहते हैं-लवण सर्वरसों का राजा है। वह पाँच प्रकार का है। अतः लवण-पंचक को छोड़ देने से रसमात्र का त्याग हो जाता है। “जितं सर्वं रसे जिते।"-रस पर विजय पा ली तो सब पर विजय पा ली। इस न्याय से लवणरस के त्याग से मोक्ष मिल जाता है। इस प्रकार सुगम मोक्षवादियों के कथन का खण्डन करते हुए ‘सूत्रकृतांगसूत्र' में कहा गया है केवल नमक न खाने से ही मोक्ष-प्राप्ति नहीं हो जाती। ऐसा सम्भव होता तो जिस देश में लवण नहीं होता, वहाँ के निवासियों को मोक्ष मिल जाना चाहिए; क्योंकि वे द्रव्यतः लवण-त्यागी हैं। परन्तु ऐसा नहीं होता। भावतः लवण-त्याग कर देने मात्र से भी मोक्ष नहीं होता; क्योंकि लवण-त्याग के पीछे रस-परित्याग (अम्वादव्रत) का आशय हो, तब तो 'आयम्बिल तप' के अनुसार दूध, दही, घी, तेल, शक्कर (या मिष्टान्न, गुड़, चीनी आदि) वगैरह वस्तुएँ भी रसोत्पादक हैं, उनका भी भाव से त्याग होना चाहिए। किन्तु बहुत-से लवण-त्यागी स्वाद-लोलुपतावश मद्य, माँस, लहसुन आदि १. हुतेण जे सिद्धिमुदाहरंति. सायं च पातं अगणिं फुसंता। एवं सियासिद्धि हवेज्ज तम्हा, अगणिं फुसंताण कुकम्मिणं पि॥ -सूत्रकृतांग, अ. ७, गा. १८, विवेचन, पृ. ३३८-३३९ २. अपरिक्ख दि₹ ण हु एव सिद्धी, एहिंति ते घातमबुज्झमाणा। भूतेहिं जाण पडिलेह सातं, विज्ज गहाय तस-थावरेहिं॥ -वही, श्रु. १, अ. ७, गा. १९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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