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________________ ॐ मोक्षमार्ग का महत्त्व और यथार्थ स्वरूप 8 १६९ ४ वाद में भी कर्मजनित दुःख मौजूद रहते हैं। अतः केवल श्रद्धा से मोक्ष की प्राप्ति • नहीं हो सकती। इसी प्रकार अकेले सम्यग्ज्ञान से भी मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती। यदि सम्यग्ज्ञान-मात्र से ही मोक्ष की प्राप्ति मानी जायेगी, सम्यग्ज्ञान प्राप्त होते ही वह मुक्त हो जायेगा, फिर सम्यक्चारित्र की साधना व्यर्थ हो जायेगी। सम्यग्ज्ञान होने पर भी स्वाध्यायपंचक के अन्तर्गत 'धर्मकथा' रूप क्रिया या उपदेश आदि का कार्य आकाशवत् नहीं कर सकेगा। कुछ कर्म-संस्कारों के रहने के कारण पूर्ण ज्ञान (केवलज्ञान) की प्राप्ति होने पर भी कर्मसंस्कार नष्ट नहीं होंगे तब तक मोक्ष-प्राप्ति नहीं हो सकेगी। उन कर्मसंस्कारों का समूल क्षय सम्यक्चारित्र से ही हो सकेगा, ज्ञान से नहीं। अन्यथा ज्ञान-प्राप्ति के साथ ही समस्त घाति-अघाति कर्मसंस्कारों का क्षय भी हो जायेगा, धर्मकथा न होने की समस्या भी पूर्ववत् बनी रहेगी। अतः सिर्फ ज्ञान से मोक्ष नहीं होता। अकेले ज्ञान को मोक्ष का मार्ग मानना ठीक नहीं है। 'उपासकाध्ययन' में अकेले ज्ञान को मोक्ष का हेतु मानने वालों की समीक्षा करते हुए कहा गया है-“ज्ञान तो सिर्फ पदार्थों की जानकारी करा देता है। यदि पदार्थों के जानने भर से मोक्ष की प्राप्ति होने लगे, तब तो पानी को जानने-देखने मात्र से प्यास बुझ जानी चाहिए। पर यह प्रत्यक्ष विरुद्ध है। अतः ज्ञानमात्र से मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती।'' तीनों का समन्वय एवं सम्यक्ता आवश्यक ___भारतीय तत्त्वचिन्तक अपने-अपने युग में मोक्ष और उसके साधनों के विषय में अपने-अपने मन्तव्य को प्रस्तुत करते रहे हैं। वैष्णवाचार्यों ने कहा-भक्ति से ही मुक्ति मिल सकती है। वेदान्त आदि दर्शनों के आचार्यों ने कहा-ज्ञान से ही मुक्ति मिल सकती है। किन्हीं आचार्यों ने एकान्त क्रिया (कर्म) से ही मुक्ति की प्ररूपणा की। यह ठीक है कि सभी अध्यात्मवादी दर्शनों का लक्ष्य एवं साध्य मुक्ति या मोक्ष है। परन्तु मोक्ष के स्वरूप और उसको प्राप्त करने के साधनों और उपायों (मार्ग) के विषय में मतभेद है। किसी ने मुक्ति का साधन एकमात्र ज्ञान को, किसी ने एकमात्र भक्ति को और किसी ने एकमात्र कर्म को बताया। अर्थात् किसी मुक्ति-प्राप्ति के साधन के रूप में ज्ञान पर बल दिया, किसी ने भक्ति पर और किसी ने कर्म पर। तीनों योग अपने आप में बुरे नहीं हैं; किन्तु उन सब में जो एकान्तवाद एवं असम्यक्त्व है, वह बुरा है। तीनों में समन्वय एवं यथार्थता होनी जरूरी है। जैनदर्शन की दृष्टि में भक्तियोग का फलितार्थ है-व्यवहारदृष्टि से सम्यग्दृष्टि एवं श्रद्धा। १. (क) उपासकाध्ययन १६-२१ (ख) तत्त्वार्थ वार्तिक १/१/४९-५३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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