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________________ ॐ मोक्ष : क्यों, क्या, कैसे, कब और कहाँ ? * १४१ * स्व-परिणति में स्थिर हो जाता है, तब वह स्वस्थ होता है। इसी आत्मिक स्वस्थता को निर्वाण कहा गया है। इसी निर्वाण पद को प्राप्त साधक सर्वदुःखों से मुक्त होकर सदा एकरस रहने वाले आत्मानन्द में लीन हो जाते हैं, परम सुखी हो जाते हैं। इस निर्वाण शब्द में सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष भी गर्भित है।' बौद्धदर्शन-मान्य अभाववाचक निर्वाण और उसका निराकरण बौद्धदर्शन के चार आर्यसत्यों में से चतुर्थ आर्यसत्य मोक्ष का प्रतिपादन करता है। रागादि वासनाओं के निरोध को वहाँ निर्वाण कहा गया है। वहाँ मोक्ष का ही अपर नाम निर्वाण है। जिसका शब्दशः अर्थ है-बुझ जाना। मतलब यह है कि बौद्धदर्शन में निर्वाण को अभाववाचक माना है। जिस प्रकार जलता-जलता दीपक बुझ जाए तो वह कहाँ जाता है ? स्थूलदृष्टि वाला व्यक्ति कहेगा-वह तो बुझ गया, नष्ट हो गया; कहीं भी नहीं गया। इसी प्रकार बौद्धदर्शन भी कहता है कि निर्वाण का अर्थ है-आत्म-दीपक का बुझ जाना; नष्ट हो जाना। निर्वाण होने पर आत्मा कहीं नहीं जाती। जाती क्या, वह नामशेष हो जाता है। उसकी सत्ता ही सदा के लिए नष्ट हो गई। 'सौदरानन्द महाकाव्य' में सुप्रसिद्ध बौद्ध महाकवि अश्वघोष की निर्वाण सम्बन्धी व्याख्या इसी प्रकार की है-जैसे निर्वाण को प्राप्त हुआ (बुझता हुआ) दीपक न तो नीचे भूमि में जाता है, न ही ऊपर आकाश में जाता है; न ही किसी (पूर्वादि) दिशा को जाता है और न विदिशा को। तेल खत्म हो जाने पर वह अपने आप शान्त हो जाता (बुझ जाता) है। उसी प्रकार निर्वाण को प्राप्त हुआ जीव न तो पृथ्वी को जाता है और न ही आकाश को; न किसी दिशा को और न विदिशा को। क्लेश का क्षय हो जाने से वह अपने आप शान्त हो जाता है। जैनदृष्टि से आत्मा के समग्र अस्तित्व को प्रकट करना निर्वाण है अर्थात् आत्मा के बुझ जाने (शान्त हो जाने) का मतलब है-आत्मा के अस्तित्व का ही मिट जाना। जैनदर्शन का निर्वाण ऐसा नहीं है। जैनदर्शन-मान्य निर्वाण का अर्थ है-आत्मा द्वारा अपने समग्र अस्तित्व को अभिव्यक्त कर लेना, निरावरण रूप में शुद्ध रूप में प्रकट कर लेना, आत्मा को परमात्मा बना लेना। निर्वाण किसका है? निर्वाण के लिए साधना किसकी है? आत्मा की ही। अतः निर्वाण का फलितार्थ है-आत्मा को ही समग्ररूप से जानना, आत्मा को ही समग्ररूप से देखना और आत्मा में ही सर्वतोभावेन रमण करना-रहना। बौद्ध निर्वाण के अनुसार क्या निर्वाण की ज्ञानादि की यह साधना अपने (आत्मा के) अस्तित्व को १. (क) निर्वाणं-निवृतिः सकलकर्मक्षयज मात्यन्तिकं सुखमिति। ___-आवश्यकवृत्ति (हरिभद्रसूरि) (ख) निव्वाणं निव्वत्ती आत्मस्वास्थ्यमित्यर्थः। -आवश्यकचूर्णि (आचार्य जिनदास) (ग) निव्वायंति = परमसुहिणो भवंति, इत्यर्थः। -वही Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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