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________________ ॐ १४० 8 कर्मविज्ञान : भाग ८ * 'द्रव्यसंग्रह टीका' में एक शंका और प्रस्तुत करके उसका समाधान किया गया है-“संसारस्थ जीवों के निरन्तर कर्मबन्ध तथा कर्मों का उदय भी होता रहता है। इस कारण उनके शुद्धात्मभावना (शुक्लध्यान) का अवसर ही नहीं आता, फिर उनके (सर्वकर्मक्षयरूप) मोक्ष कैसे होता है? इसका उत्तर यह है कि जैसे कोई बुद्धिमान् अपने शत्रु की निर्बल अवस्था देखकर मन में विचार करता है कि वह इसे मारने का मेरे लिए सुअवसर है, यों सोचकर वह अपने शत्रु को साहस करके मार डालता है, इसी प्रकार कर्मों की भी सदा एकरूप अवस्था नहीं रहती, इस कारण स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध की न्यूनता होने पर जब कर्म हलके होते हैं, तब बुद्धिमान् भव्य आत्मा आगमिक भाषा में पाँच लब्धियों से और अध्यात्म भाषा में निज शुद्ध आत्मा के सम्मुख परिणाम नामक निर्मल भावना-विशेष रूप खड्ग से पौरुष करके कर्मशत्रुओं को नष्ट कर देता है।'' निर्वाण के पर्यायवाचक शब्द 'उत्तराध्ययनसूत्र' में मोक्ष तथा उसके पर्यायवाचक शब्दों का उल्लेख करके उसका निर्वाणवादियों में प्रधान भगवान महावीर की दृष्टि से स्पष्टीकरण किया गया है-“लोक के अग्र भाग में एक ऐसा ध्रुव (अचल) स्थान है, जहाँ जरा (वृद्धावस्था), मृत्यु, व्याधियाँ और वेदनाएँ नहीं हैं। परन्तु वहाँ पहुँचना दुरारूह (कठिन) है।" "जिस स्थान को महर्षिजन (महामुनि) ही प्राप्त कर पाते हैं, वह स्थान निर्वाण, अबाध, सिद्धि, लोकाग्र, क्षेम, शिव और अनाबाध (इत्यादि नामों से प्रसिद्ध) है।" "भवप्रवाह (संसार-परम्परा) का अन्त करने वाले महामुनि जिसे प्राप्त कर शोक से मुक्त हो जाते हैं, वह स्थान लोक के अग्र भाग में हैं। वहाँ शाश्वतरूप से मुक्त जीव का वास हो जाता है, जहाँ पहुँच पाना अत्यन्त कठिन है।" ‘आचार्य हरिभद्र' निर्वाण का अर्थ करते हैं-सकल कर्मों के क्षय हो जाने पर आत्मा को कभी नष्ट न होने वाली आत्यन्तिक आध्यात्मिक सुख-शान्ति प्राप्त होना निर्वाण (निर्वृति) है। इसी प्रकार ‘आवश्यकचूर्णि' में निर्वाण का अर्थ आचार्य जिनदास ने किया है-निर्वृति अर्थात् आत्मा की स्वस्थता। आत्मा कर्मरोग से मुक्त होकर जब अपने स्व-स्वरूप में स्थित हो जाता है, पर-परिणति से हटकर १. द्रव्यसंग्रह टीका ३७/१५५/१० २. अस्थि एगं धुवं ठाणं लोगग्गम्मि दुरारोहं। जत्थ नत्थि जरा मच्चू ताहिणो वेयणा तहा।।८१॥ निव्वाणं ति अबाहंति सिद्धी लोगग्गमेव य। खेयं सिवं अणाबाहं जं चरंति महेसिणो॥८३॥ तं ठाणं सासयं वासं लोयग्गम्मि दुरारुह। जं संपत्ता न सोयंति भवोहतकरा मुणी॥८४॥ -उतराध्ययन, अ. २३, गा. ८१, ८३-८४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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