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________________ * मोक्ष : क्यों, क्या, कैसे, कब और कहाँ ? * १३७ 8 संसार सुख-दुःख संस्पृष्ट होते हैं, मोक्ष सुख-दुःखों से सर्वथा असंस्पृष्ट अतः संसार और मोक्ष के सुख में जमीन-आसमान का अन्तर है। संसार का कोई भी सुख ऐसा नहीं है, जो दुःख से संभिन्न = संस्पृष्ट न हो। यहाँ सुख से पहले दुःख है, सुख के बाद भी दुःख है और सुख की विद्यमानता में भी दुःख है। एक दुःख का अन्त होता नहीं है, उससे पहले दूसरा दुःख सामने आ धमकता है। एक इच्छा की पूर्ति होती नहीं है, तब तक दूसरी अनेक इच्छाएँ मन में उछलकूद मचाने लगती हैं। सांसारिक सुख इच्छाओं-कामनाओं की पूर्ति में होता है और सब की सब इच्छाएँ पूर्ण कहाँ होती हैं ? दुःखों का सर्वथा अभाव तो तब हो, जब मन में कोई इच्छा ही न हो। और यह इच्छाओं का सर्वथा अभाव अर्थात् दुःखों का सर्वथा अभाव या दुःख से सर्वथा असंभिन्नत्व मोक्ष में ही हो सकता है, अन्यत्र नहीं। और वह मोक्ष सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रयरूप धर्म की साधना से ही प्राप्त हो सकता है। इसीलिए मोक्ष प्राप्त आत्माओं के लिये विशेषण है-“सव्व दुक्खाणमंतं करेंति।" वे समस्त दुःखों का सर्वथा अन्त कर देते हैं। मोक्षवादी और स्वर्गवादी धाराओं में महान् अन्तर प्रश्न होता है, जब मोक्ष में अनन्त अव्याबाध सुख और आत्मानन्द की अजन धारा बह रही है, तब कतिपय दार्शनिकों ने मोक्षवाद को बिलकुल न छूकर स्वर्गवाद तक की दौड़ क्यों लगाई ? दार्शनिक क्षेत्र में इसी कारण दो धाराएँ रही हैं-एक मोक्षवादी या निर्वाणवादी धारा और दूसरी स्वर्गवादी धारा। मोक्षवादी या निर्वाणवादी धारा एकमात्र आत्मा से सम्बन्धित है, वहाँ शरीर या शरीर से सम्बन्ध किसी भी पर-भाव या विभाव की चर्चा नहीं है, उससे कोई वास्ता ही नहीं है। इसके विपरीत स्वर्गवादी धारा सारी की सारी इहलौकिक और पारलौकिक शरीर और शरीर से सम्बद्ध कामनामूलक है। वहाँ स्वर्ग में जाने के लिए या इहलौकिकपारलौकिक सुख को पाने के लिए विभिन्न यज्ञों को माध्यम बताया गया है। जैसे कहा गया-'पुत्रकामो यजेत, स्वर्गकामो यजेत' इत्यादि। वेदों में तथा ईसाई एवं इस्लामधर्म आदि के मूल ग्रन्थों में स्वर्ग तक का ही जिक्र है, मोक्ष का वहाँ जिक्र ही नहीं है। यही कारण है कि स्वर्गवादी धारा के अनुगामियों को मोक्षसुख के सिद्धान्त पिछले पृष्ठ का शेष जं देवाणं सोक्खं, सव्वद्धा पिंडियं अणंतगुणं। ण य पावइ मुक्तिसुहं णंताहिं वग्गवग्गूहि ।।१४॥ सिद्धस्स सुहो रासी, सव्वद्धा पिंडिओ जइ हवेज्जा। सोणंत-वग्ग-भइओ, सव्वागासे ण माएज्जा ॥१५॥ इय सिद्धाणं सोक्खं अणोवमं णत्थि तस्स ओवम्म। किं चि विसेसेणेत्तो उवमाए तहिं असंतीए॥१७॥ -औपपातिकसूत्र, सू. १८०-१८४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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