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________________ १३६ कर्मविज्ञान : भाग ८ हजार वर्ष तक खड़े-खड़े कायोत्सर्ग में स्थित रहा जा सकता है। इसका फलितार्थ है, साठ हजार वर्ष तक शरीर में रहते हुए भी अशरीरीवत् रहा जा सकता है। कायोत्सर्ग की इस उत्कृष्ट स्थिति में इस कालचक्र के लगभग दो काल यानी प्रायः पाँचवें - छठे आरे तक यानी इतनी कालावधि तक व्यक्ति बिना ऊबे रह सकता है। अनुभवी साधकों का कहना है कि समाधिस्थ व्यक्ति को ६० हजार वर्ष ६० हजार मिनट जितने भी नहीं मालूम होते । उसके अन्तर में सुख का स्रोत फूट पड़ता है।' संसार सुख और मोक्ष सुख में महान् अन्तर यह तो हुई कुछ विशिष्ट ध्यानयोगी साधकों के ध्यान, कायोत्सर्ग या समाधि में न ऊबने तथा आत्मिक आनन्द पाने की बात । मोक्ष का सुख तो उस सुख से अनन्त गुना बढ़कर है। आगम वचन है कि समग्र संसार के सुखों को मिलाकर एक स्थान पर पिण्डीभूत कर दें और उसे तराजू के एक पलड़े में रखें और उसी तराजू के दूसरे पलड़े में मोक्ष के सुख को रखें। ऐसी स्थिति में मोक्ष के सुख का पलड़ा बहुत भारी होगा। संसार के सारे सुखों से अनन्त गुना अधिक है - मोक्ष - सुख । जिस मुक्तात्मा को इतना अधिक सुख मिल गया है या मिल रहा है, वह आत्म-समाधि में लीन महापुरुष क्यों ऊबेगा? 'औपपातिकसूत्र' की गाथाएँ भी इस तथ्य की साक्षी हैं-"सिद्धों (मोक्ष-प्राप्त आत्माओं) को जो विघ्न-बाधारहित शाश्वत सुख प्राप्त है, वह न मनुष्यों को प्राप्त है और न समस्त देवताओं को । तीनों कालों से गुणित देवों का सुख यदि अनन्त बार वर्ग- वर्गित (वर्ग को वर्ग से गुणित ) किया जाए तो भी वह मोक्ष -सुख के समान नहीं हो सकता। एक मोक्ष प्राप्त आत्मा के सुख को तीनों कालों से गुणित करके पिण्डित किये जाने पर जो सुखराशि निष्पन्न हो, उसे यदि अनन्त वर्ग से विभाजित की जाए, तो जो सुखराशिं भागफल के रूप में प्राप्त हो, वह भी इतनी अधिक होती है कि समग्र आकाश में नहीं समा सकती। मोक्ष प्राप्त आत्माओं का सुख अनुपम है। वे सदैव परम तृप्तियुक्त अनुपम शान्तियुक्त, शाश्वत, नित्य, अव्याबाध परम सुख में निमग्न रहते हैं। वे अनुपम सुखसागर में लीन रहते हैं । " जो परम आत्मा निरन्तर आत्मानुभूति और अनन्त सुख में लीन रहता है जहाँ व्यक्ति आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक समग्र दुःखों से मुक्त है, उसे मोक्ष में थकान या ऊब का तो प्रश्न ही कहाँ रहा ? उसे टी. वी., सिनेमा आदि मनोरंजन के साधनों की क्यों अपेक्षा होगी ? जो तनाव का, उद्विग्नता का या दुःखमय जीवन जीता है, उसे ही मनोरंजन के साधनों की अपेक्षा होती है, मोक्ष के शाश्वत अनन्त सुख में मग्न परमात्मा को नहीं । १. 'जैनधर्म : अर्हत् और अर्हताएँ ' ( आचार्य महाप्रज्ञ) से भाव ग्रहण, पृ. १८८, १९० २. ण वि अत्थि माणुसणं, तं सोक्खं ण वि य सव्व देवाणं । जं सिद्धाणं सोक्खं, अव्वाबाहं उवगयाणं ॥१३॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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