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________________ बत्तीस योग-संग्रह : मोक्ष के प्रति योग, उपयोग और ध्यान के रूप में * १२१ ॐ ही दूसरे ध्यान की योग्यता प्राप्त होती है। इस द्वितीय शुक्लध्यान में प्रवेश करते -ही साधक की भेद-प्रधानदृष्टि लुप्त हो जाती है, उसका विभिन्न विषयगामिनी चिन्तन एक ही विषय (पर्याय) में केन्द्रित हो जाता है। वह द्रव्यगत पर्यायों की विभिन्नता में भी एकता के दर्शन करता है। अतएव उसकी दृष्टि विशेषगामिनी न होकर सामान्यगामिनी होती है अर्थात् पदार्थ में दृश्यमान उत्पाद और विनाश से पहले और पीछे पदार्थरूप से सदा स्थिर रहने वाली अभेदगामिनी अविनाशी सत्ता ही उसके चिन्तन का एकमात्र विषय होता है।' द्वितीय शुक्लध्यान की उपलब्धियाँ इस प्रकार अभेद-प्रधान चिन्तन के फलस्वरूप इस ध्यान का साधक मन को पूर्णतया स्थिर कर लेता है। उसकी चंचलता सर्वथा नष्ट हो जाती है। वह एकाग्र और (चिन्तन) निरोधरूप परिणाम को प्राप्त होकर सर्वथा निष्प्रकम्प हो जाता है। इसे ही पातंजल योगदर्शन का चित्तवृत्ति का सर्वथा निरोधरूप योग है। ___ इस ध्यान के फलस्वरूप साधक को एक विशेष प्रकार के अनुभव की उपलब्धि होती है। जिसे अन्य दार्शनिक भाषा में-'अपरोक्षानुभूति' कहा जाता है, उसी की उपलब्धि इस ध्यानसाधक को हो जाती है। जिसके प्रभाव से आत्मा की सर्व-पदार्थ-बोधक ज्ञान, दर्शन एवं वीर्य आदि शक्तियों के आवरक, कुण्ठितकर्ता, आत्म-गणघातक एवं प्रतिबन्धक ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय, इन चारों घातिकर्मों का समूल नाश हो जाता है। साधक की आत्मा मध्याह्न के सूर्य के सदृश अपनी अनन्त-चतुष्टयरूप सम्पूर्ण शक्तियों के पूर्ण विकास से प्रतिभासित होने लगती है और तभी उसे सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, वीतराग, सर्वशक्ति-सम्पन्न (सदेह) परमात्मा और जीवन्मुक्त आदि नामों से सम्बोधित किया जाता है। यह दूसरे शुक्लध्यान का महत्त्व और लाभ है। पातंजल योगदर्शन में उक्त सम्प्रज्ञातयोग के वितर्कानुगत, विचारानुगत, आनन्दानुगत और अस्मितानुगत, इन चारों भेदों का इन दोनों प्राथमिक शुक्लध्यानों में अन्तर्भाव (समावेश) हो जाता है। . (३) सूक्ष्मक्रिया-अप्रतिपाती-शुक्लध्यान का यह तीसरा भेद सयोगीकेवली नामक तेरहवें गुणस्थान में प्राप्त होता है। जब केवलज्ञानी भगवान आयुष्य के अन्तिम समय में योगनिरोध के क्रम का आरम्भ करते समय सूक्ष्मकाययोग का अवलम्बन लेकर बाकी के योगों का निरोध करते हैं, तब उनमें एकमात्र श्वास-प्रश्वास-जैसी सूक्ष्मक्रिया ही बाकी रह जाती है, जिसमें से पतन की १. 'जैनागमों में अष्टांगयोग' से भाव ग्रहण, पृ. ३५-३६ २. वही, पृ.३६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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