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________________ ॐ १२०० कर्मविज्ञान : भाग ८ ॐ किसी एक ही पर्यायरूप अर्थ को लेकर मन, वचन और काया के किसी एक ही योग पर स्थिर रहकर एकत्व = अभेद-प्रधान चिन्तन करता है। इसीलिए इस ध्यान का नाम एकत्व-वितर्क-अविचार शुक्लध्यान है। इसमें उत्कृष्ट श्रुतज्ञान का आलम्वन समान होने पर भी एकत्व और अविचार की विशेषता स्पष्ट है।' ' शुक्लध्यान के आदि के दो भेद सालम्बन और अन्तिम दो भेद निरालम्बन हैं निष्कर्ष यह है कि शुक्लध्यान के आदि के दो भेदों में किसी वस्तु के आलम्बन की आवश्यकता नहीं रहती, श्रुतज्ञान और योग का आलम्बन रहता है और अन्तिम दो भेदों में तो किसी प्रकार के आलम्बन की आवश्यकता नहीं रहती। . इसलिए शुक्लध्यान के प्रथम के दो भेदों को सालम्बन शुक्लध्यान कहा जाता है और अन्तिम दो भेदों को वैकल्य-दशा भावी होने से निरालम्बन शुक्लध्यान में परिगणित किया जाता है। किस शुक्लध्यान में कितने योग ? ___ यद्यपि तीसरे भेद में योग तो होता है, यानी सयोगीकेवली नामक तेरहवें गुणस्थान में मन-वचन-काया का व्यापार रहता है, किन्तु वह केवल द्रव्यरूप से अवस्थित है, भावरूप से नहीं। 'तत्त्वार्थसूत्र' के अनुसार-प्रथम शुक्लध्यान तीन योग वाले को, द्वितीय शुक्लध्यान तीन में से किसी एक योग वाले को, तृतीय शुक्लध्यान केवल काययोग वाले को और चतुर्थ शुक्लध्यान सर्वयोगरहित अयोगी को होता है। प्रथम के दो भेदों में उत्कृष्ट श्रुतज्ञान होता है और पिछले दोनों भेदों में परम विशुद्ध केवलज्ञान। प्रथम के दोनों शुक्लध्यानों का आश्रय एक है, इन दोनों के अधिकारी होते हैं-पूर्ववेत्ता श्रुतकेवली। प्रथम के दोनों सवितर्क यानी श्रुतज्ञानसहित हैं। पहला शुक्लध्यान सविचार अर्थात् अर्थ, व्यञ्जन और योग के संक्रमण = परिवर्तन का नाम विचार है, उसके सहित है, जबकि दूसरे शुक्लध्यान में वैसा नहीं होता। यह अन्तर इन दोनों के नाम से ही स्पष्ट है। प्रथम ध्यान दूसरे ध्यान का पूरक और साधक तथा विशेष सामान्यगामी दृष्टि ___ एक बात और ध्यान में रखनी है कि इन दोनों आदि के शुक्लध्यानों में से पहला ध्यान दूसरे ध्यान का पूरक है, साधन है। पहले ध्यान में निष्णात होने पर १. 'जैनागमों में अष्टांगयोग' से भाव ग्रहण, पृ. ३५ २. वही, पृ. ३४ ३. (क) वही, पृ. ३४-३५ (ख) तत् त्र्येककाय-योगाऽयोगानाम्। एकाश्रये सवितर्के पूर्वे। अविचारं द्वितीयम्। शुक्ले चाद्ये पूर्वविदः। परे केवलिनः। -तत्त्वार्थसूत्र, अ. ९, सू. ४२-४४, ३९-४० (ग) वितर्कः श्रुतम्। विचारोऽर्थ व्यंजन-योग-संक्रान्तिः। -वही, अ. ९, सू. ४५-४६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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