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________________ ॐ ११२ ® कर्मविज्ञान : भाग ८ ® प्रतिफलित होती हैं-(१) चित्त की सम्यक्प्रवृत्ति, (२) एकाग्रता, और (३) अन्त में, निरोध। जैन प्रक्रिया के अनुसार यह लक्षण मनःसमिति और मनोगुप्ति (मन की एकाग्रता और मनोनिरोध) में गतार्थ हो जाता है।' । यों तो बत्तीस प्रकार के योग-संग्रह में, समाधि और संयोग, योग के इन दोनों रूपों का सामंजस्य हो जाता है। परन्तु आचार्य अभयदेवसूरि ने समवायांगसूत्र की वृत्ति में इन बत्तीस ही योगों को मोक्ष से जोड़ने-संयोग करने वाले बताये हैं। योग-संग्रह के बत्तीस भेद : धर्म-शुक्लध्यान के रूप में .. किन्तु आचार्य जिनदास महत्तर योग के समाधिरूप अर्थ को ध्यान में रखकर धर्मध्यान के १६ भेद एवं शुक्लध्यान के १६ भेद, यों बत्तीस ध्यान-भेदों को योग-संग्रह के रूप में प्रस्तुत करते हैं। फलितार्थ यह है कि योग-संग्रह में परिगणित ३२ प्रकार के साधनों को लेकर साधना करने से धर्मध्यान और शुक्लध्यान की उपलब्धि हो जाती है, जो मोक्ष-प्राप्ति के अन्तरंग कारण हैं। तात्पर्य यह है कि बत्तीस योग-संग्रह में योग के वे समस्त साधन निर्दिष्ट हैं, जिनको साधक अपने में ध्यान या समाधि की योग्यता प्राप्त करने के लिए आवश्यकता होती है। वस्तुतः समाधि ध्यान की परिपक्व अवस्था है अथवा.ध्यान से प्राप्त होने वाला चित्तवृत्ति का अस्पन्दन मात्र है। जैसा कि स्कन्धाचार्य ने भी कहा है-वह ध्यान ही है, जिसका अभ्यास करते-करते कालक्रम से परिपक्व दशा को प्राप्त हो जाने को 'समाधि' कहा जाता है अथवा ध्यान से बुद्धि के अस्पन्दन को समाधि कहा जाता है। जैनदृष्टि से समाधि शुक्लध्यान के चारों पादों में तिरोहित हो जाती है। अतः समाधि ध्यान की अवस्था-विशेष ही है। १. (क) समाधिमेव च महर्षयो योगं व्यपदिशन्ति। यदाहुः योगि-याज्ञवल्क्याः -समाधिः समतावस्था जीवात्म-परमात्मनोः। संयोगो योः इत्युक्तः जीवात्म-परमात्मनोः इति। अतएव स्कन्धादिषु-यत्समत्वं द्वयोरत्रजीवात्म-परमात्मनोः। सन्नष्ट-सर्वसंकल्पः समाधिरभिधीयते। (ख) परमात्मात्मनोर्योऽयमविभागः परंतप ! स एव तु परोयोगः समासात् कथितस्तव। इत्यादिषु वाक्येषु योगसमाध्योः समानलक्षणत्वेन निर्देशः संगच्छते। -योगभाष्य-भूमिका २. (क) 'श्रमणसूत्र' (उपाध्याय अमर मुनि) से भाव ग्रहण, पृ. २९९ (ख) धम्मोसोलसविधं एवं सुक्कं पि। -आचार्य जिनदास महत्तर ३. (क) “जैनागमों में अष्टांगयोग' से भाव ग्रहण, पृ. ५ (ख) समाधिानमेव हि। -योगशास्त्र (ग) तदेतद्ध्यानमेव चाभ्यस्यमानं कालक्रमेण परिपाकदशापन्नं समाधिरित्यभिधीयते। -'ध्यानादस्पन्दनं बुद्धेः समाधिरित्यभिधीयते।' इति स्कन्धाचार्योक्तिः। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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