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________________ ® बत्तीस योग-संग्रह : मोक्ष के प्रति योग, उपयोग और ध्यान के रूप में ॐ १११ ॐ समाधि और संयोग : ये दोनों योगरूप एक ही पदार्थ के दो रूप योग के व्युत्पत्तिलभ्य इन दोनों (समाधि और संयोग) अर्थों पर सूक्ष्मदृष्टि से विचार किया जाये तो इन दोनों में भेद-अभेदरूप का आभास होता है। परन्तु गहराई से विचार करने पर दोनों में सामंजस्य ही प्रतीत होगा। वस्तुतः समाधि और संयोग, ये दोनों योगरूप एक ही पदार्थ के विभिन्न दो रूप हैं, एक ही सिक्के के ये दोनों मुखभाग और पृष्ठभाग के समान चित और पटवत् हैं। एक में समाधान प्रधान है तो दूसरे में संयोजन मुख्य है। समाधान (समाधि) आत्मा की समाहित अवस्था, समता की परिणति है, स्वरूप में स्थिति है, जबकि संयोग साधक को अपने परम साध्य से मिलाने वाला है। समाधान यानी समता में अभेददृष्टि की प्रमुखता है, जबकि संयोग में भेदप्रधान विचारों की प्रधानता है। दोनों की प्रतीत होने वाली विभिन्नता चिरकालस्थायी नहीं, अपितु अपने मूल स्रोत-उद्गम स्थान के-परम साध्य के समीप आते ही, दोनों प्रकार के योग अपने व्यापक स्वरूप में लीन हो जाते हैं। अतः दोनों का समन्वयात्मक फलितार्थ यों घटित होता हैमोक्ष-प्राप्ति के मुख्य और गौण, अन्तरंग या बहिरंग, ज्ञानदृष्टि और आचारदृष्टि से जितने भी अध्यात्मशास्त्र-निर्दिष्टं साधन हैं, जो साक्षात या परम्परा से मोक्ष के उपाय हैं, उनका यथाविधि सम्यक् अनुष्ठान और उससे प्राप्त होने वाली आध्यात्मिक विकास की परिपूर्णता का नाम योग है।' वैदिक विद्वानों द्वारा भी योग शब्द समाधि और संयोग अर्थ में प्रयुक्त योग शब्द के संयोग और समाधि, इन दोनों मौलिक अर्थों को ही सम्मुख रखकर कतिपय वैदिक विद्वानों ने जो सारगर्भित व्याख्या की है, उससे भी हमारे पूर्वोक्त कथन का समर्थन होता है___ महर्षिगण समाधि को ही योग कहते हैं, जैसे कि योगी याज्ञवल्क्य ने कहा"समाधि जीवात्मा और परमात्मा की समतावस्था है, जबकि जीवात्मा और परमात्मा के संयोग को योग कहा है।" अतः स्कन्ध आदि पर स्वामी बालाराम कृत 'योगभाष्य-भूमिका' में कहा गया है-यहाँ जीवात्मा और परमात्मा, इन दोनों का जो सर्व-संकल्पों से रहित समत्व है, उसे ही समाधि कहा जाता है। इसी प्रकार हे परन्तप ! आत्मा और परमात्मा को जो अविभक्त संयोग है, वही संक्षेप में परम योग है, जिसे मैंने तुम्हें कहा है।" प्रस्तुत बत्तीस प्रकार के योग-संग्रह में योग के इन्हीं दो रूपों का मोक्ष-प्राप्ति के साधन के रूप में उल्लेख किया गया है। चित्तवृत्ति-निरोधरूप योगलक्षण में समाधिरूप योग परिलक्षित होता है। चित्त के विषय में इस लक्षण में तीन बातें, १. 'जैनागमों में अष्टांगयोग' से भाव ग्रहण, पृ. ४-६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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