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________________ * मोक्ष से जोड़ने वाले : पंचविध योग ॐ ९३ ॐ आरूढ़ होता है, तब उसे वीतरागता-प्राप्ति में सहयोग देने वाला समतायोग ही है। ऐसी स्थिति में विभिन्न अवस्थाओं में, अनूकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों में, यहाँ तक कि मन के विचारों में, वचन की तरंगों में, काया की चेष्टाओं में, प्रत्येक स्थान में, प्रतिक्षण, सुषुप्त अवस्था में हो या जाग्रत अवस्था में, रात्रि हो या दिवस, मन-वचन-काया की प्रत्येक प्रवृत्ति में समतायोगी के अन्तःकरण मन्दिर में समत्वदीपक की लौ अखण्डरूप से जलती रहती है। उसकी आत्मा समतारस से ओतप्रोत रहती है। जब आत्मा अपने स्व-भाव में स्थिर, लीन और तन्मय रहती है, अपने मूल गुणों को केन्द्र में रखकर स्वरूप में स्थित होती है, उसी आत्म-स्थिरता को पूर्ण समतायोग कहा गया है। इस प्रकार समता एक दृष्टि है-रसायन-परिवर्तन की, विषमता में स्थिरता की, विवशता में स्वाधीनता की, भयभीत अवस्था में धीरता की, प्रतिकूल परिस्थिति में मनःस्थिति को सम रखने की, सन्तुलन न खोने की, विभिन्न आत्म-शक्तियों को प्रगट करने की। यह सम्यग्दृष्टि जिसे मिल जाती है, वह अजर, अमर, अविनाशी, अभय और निरामय हो जाता है। समतायोग क्या करता है ? अनादिकाल से अविद्या या मोह के वशीभूत होकर जीव अमुक वस्तु, व्यक्ति या परिस्थिति को इष्ट और अमुक को अनिष्ट मानकर इष्ट वस्तु में राग, आसक्ति या मोह और अनिष्ट वस्तु में द्वेष, घृणा, अरुचि या द्रोह करने लगता है। सौभाग्यवश जब उसमें विवेक-ज्ञान उदित होता है तो वह इष्ट-अनिष्ट के मर्म को समझ पाता है। विवेक-नेत्र के खुलते ही वह देखता है कि कल जिस वस्तु को अनिष्ट-अप्रिय जानकर तिरस्कृत किया था, आज उसी को इष्ट-प्रिय समझकर अपना रहा है। इसलिए कोई भी वस्तु, व्यक्ति या परिस्थिति अपने आप में इष्ट या अनिष्टरूप नहीं होती। वस्तु में इष्टत्व-अनिष्टत्व की कल्पना अविद्या-कल्पित है, अविद्या की उपज है। इस अविद्या के सम्पर्क से ही आत्मा में अमुक पदार्थों, व्यक्तियों या परिस्थितियों के प्रति इष्टानिष्टत्व की कल्पना से ही हर्ष-शोकादिरूप . वैभाविक संस्कारों का उदय होता है, जिससे वह जीवात्मा स्वयं को सुखी या दुःखी मान लेती है। वास्तव में ये अविद्याजनित संस्कार न तो आत्मा के निजी गुण हैं और न इनका उससे कोई वास्तविक सम्बन्ध है। आत्मा का वास्तविक स्वरूप तो सत्-चित्-आनन्दरूप है, जैनदृष्टि से सम्यग्ज्ञान-दर्शन-शक्ति आनन्दरूप है। इसीलिए समतायोग की परिभाषा 'योगबिन्दु' में इस प्रकार की है-"अविद्याकल्पित इष्ट-अनिष्ट पदार्थों में विवेकपूर्वक तत्त्व निर्णय-बुद्धि से राग-द्वेषरहित होना, अर्थात पदार्थों में की जाने वाली इष्टानिष्टत्व-कल्पना को केवल अविद्याजनित मानकर उनमें उपेक्षाभाव धारण करना समता कहलाती है।'' उसमें प्रशस्त १. अविद्याकल्पितेषूच्चैरिष्टानिष्टेषु वस्तुषु। - संज्ञानात्तद्-व्युदासेन समतासमतोच्यते॥ -योगबिन्दु, श्लो. ३६३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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