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________________ ॐ ९२ ® कर्मविज्ञान : भाग ८ 8 अशुभ योगों (मन-वचन-काया) की प्रवृत्तियों से रहित है। यों समता शब्द का सामान्य अर्थ होता है-माध्यस्थ, तटस्थता, उदासीनता, परभाव-विभाव निरपेक्षता, राग-द्वेषरहितता इत्यादि। इसी दृष्टि से 'तत्त्वानुशासन' में समता शब्द के माध्यस्थ्य, समभाव, उपेक्षा, वैराग्य, साम्य, निःस्पृहता, परम शान्ति इत्यादि पर्यायवाची शब्द बताये गये हैं। ‘पद्मनन्दि पंचविंशतिका' में भी साम्य, स्वास्थ्य, समाधि, योग, चित्तनिरोध और शुद्धोपयोग इत्यादि शब्दों को समता के समानार्थक बताये गए हैं। 'नयचक्र' में समता के शुद्ध भाव, वीतरागता, (निश्चय) चारित्र, धर्म और स्वभाव की आराधना इत्यादि शब्दों का समता के पर्यायवाचक शब्दों के रूप में उल्लेख है। 'द्रव्यसंग्रह टीका' में समता को मोक्षमार्ग का अपर नाम कहकर उसकी विशेषता प्रगट की गई है। समतायोग की साधना और फलश्रुति शुद्ध साम्य वहीं होता है, जहाँ (समता से सम्बन्धित) कोई आकार या अक्षर अथवा कृष्णनीलादि वर्ण और विकल्प परिलक्षित न होकर एकमात्र चैतन्यस्वरूप ही प्रतिभासित होता है। आत्मा को जब अपने द्रव्य और पर्यायों से अभिन्न स्वरूप निश्चित (प्रतीत) होने लगता है, तभी साम्यभाव उत्पन्न होता है। उस स्थिति में साधक लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, जन्म-मरण, निन्दा-प्रशंसा, सम्मान-अपमान इत्यादि द्वन्द्वों में राग-द्वेष न करके मध्यस्थ रहता है, ज्ञाता-द्रष्टाभाव में रहता है, उसी की वह साधना समत्व-साधना है। उस साधना में टिके रहना ही समत्वयोग है। साम्यभाव में स्थित साधक को इष्ट-अनिष्ट पदार्थों के प्रति राग-द्वेष, आसक्ति-घृणा, लालसा-अरुचि आदि उत्पन्न नहीं होते। ऐसे समतायोगी साधक के प्रतिक्षण, प्रति प्रवृत्ति में समभाव की भावना होती है, उसकी समस्त आशाएँ, स्पृहाएँ, फल की आकांक्षाएँ समाप्तप्रायः हो जाती हैं, अविद्या भी क्षणभर में क्षीण हो जाती है, वासनाएँ भी समभाव से वासित हो जाती हैं। ध्यान-साधना में समतायोग अतीव उपयोगी है। समतायोग की महत्ता और आवश्यकता जब साधक प्रतिद्वन्द्वात्मक अनुकूल-प्रतिकूल पदार्थों या अवस्थाओं में समभाव की मस्ती में रहकर राग-द्वेष-मोह से दूर रहकर उपशम श्रेणी या क्षपक श्रेणी पर १. (क) प्रवचनसार, गा.७ (ख) पाइअ-सद्द-महण्णवो, पृ. ८६४ (ग) तत्त्वानुशासन, श्लो. ४-५ (घ) पद्मनन्दि पंचविंशतिका, श्लो. ६४ (ङ) नयचक्र बृहत्, श्लो. ३५६ (च) द्रव्यसंग्रह टीका, गा. ५६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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