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________________ ® मोक्ष से जोड़ने वाले : पंचविध योग ® ८९ * शुक्लध्यान की प्रक्रिया, लक्षण आदि का संक्षिप्त परिचय ध्यान-साधना में लीन योगी जब ध्यानाभ्यास में पारंगत हो जाता है, तब उसकी राग-द्वेष आदि विभावों की वृत्तियाँ समाप्त हो जाती हैं। उसे निर्विकल्प समाधि प्राप्त हो जाती है। इस अवस्था-विशेष को जैनागमों में शुक्लध्यान कहा है। इसकी भी उत्तरोत्तर वृद्धिंगत चार श्रेणियाँ हैं, जिनका वर्णन हम 'मोक्ष के साधन योग : बत्तीस योग-संग्रह/ध्यान प्रकार' में कर आए हैं।' शुक्लध्यान का स्वरूप और लक्षण 'प्रवचनसार' के अनुसार-“जिस तरह मैल दूर हो जाने से वस्त्र शुचि (निर्मल) होकर शुक्ल (श्वेत) कहलाता है, तथैव निर्मल गुणयुक्त आत्म-परिणति को शुक्लध्यान कहा है।'' 'द्रव्यसंग्रह' के अनुसार-“निज शुद्ध आत्मा में निर्विकल्प समाधि शुक्लध्यान है।" इसी की टीका में कहा है-“आत्मा की विशुद्ध परिणति से रागादि विकल्प जब छूट जाते हैं और स्व-संवेदनात्मक ज्ञान प्राप्त हो जाता है, इसी ज्ञान को शुक्लध्यान कहते हैं।' 'नियमसार' में कहा है-'ध्याता, ध्येय और ध्यान में एकात्मता होती है, तब शुक्लध्यान होता है, जिसका फल है-विकल्पों से मुक्त, अन्तर्मुखी एवं परम तत्त्व में अविचल स्थिति।" 'तत्त्वानुशासन' के अनुसार-“यह ध्यान सुनिर्मल, निष्प्रकम्प होता है। इसमें कषाय के क्षय या उपशम से आत्मा में निर्मल परिणाम होते हैं। यही शुक्लध्यान की पहचान है। इस ध्यान में अष्टविध कर्ममलों का शोधन होता है। इस ध्यान में साधक ध्येय में अन्तर्मुख रहता है।"२ प्राथमिक दो शुक्लध्यान श्रुतावलम्बी चार प्रकार के शुक्लध्यानों में पहले के दो ध्यान पूर्वगत श्रुत में प्रतिपादित अर्थ का अनुसरण करने के कारण श्रुतावलम्बी हैं। वे प्रायः पूर्वो के ज्ञाता छद्मस्थ योगियों को होते हैं तथा कभी-कभी विशिष्ट पूर्वधरों को भी होते हैं। गुणस्थान और योग की अपेक्षा शुक्लध्यान के अधिकारी ... गुणस्थान की अपेक्षा से शुक्लध्यान के प्रथम दो भेदों के अधिकारी ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थान के पूर्वधर साधक होते हैं। जो पूर्वधर नहीं हैं, किन्तु ग्यारह आदि अंगशास्त्रों के धारक हैं, उन ग्यारहवें-बारहवें गुणस्थानधारकों में शुक्लध्यान १. (क) 'योग-प्रयोग-अयोग' से भाव ग्रहण, पृ. २० (ख) देखें-कर्मविज्ञान, भा. ७ २. (क) प्रवचनसार वृ. ८/१२ . (ख) द्रव्यसंग्रह टीका, गा. ४८ (ग) नियमसार, गा. १२३ - (घ) तत्त्वानुशासन, गा. २२२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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