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________________ ॐ८८* कर्मविज्ञान : भाग ८* गुणस्थान तक के साधक हो सकते हैं। यद्यपि चौथे-पाँचवें-छठे गुणस्थान में भी कदाचित् शुभ अध्यवसाय से धर्मध्यान हो सकता है। इस दृष्टि से धर्मध्यान के ध्याता जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट के भेद से तीन प्रकार के हैं। उत्तम प्रकार का. ध्याता प्रमत्त संयत से अप्रमत्त संयत गुणस्थान में पहुँच जाता है तथा मध्यम ध्याता इन्द्रिय और मन का निग्रह कर पाता है। ‘अनुयोगद्वारसूत्र' में (धर्मध्यान) ध्याता के ९ प्रकार बताये हैं-(१) तच्चित्त (सामान्योपयोगरूप चित्त वाला), (२) तन्मय (विशेषोपयोगरूप चित्त वाला), (३) तल्लेश्य (शुभ परिणामरूप लेश्या वाला), (४) तदध्यवसित (क्रिया को सम्पादित करने में दृढ़ निश्चयी तथा प्रवर्धमान उत्साही), (५) तत्तीव्राध्यवसान (प्रारम्भ से ही तीव्र अध्यवसायशील), (६) तदर्थोपयुक्त (अत्यन्त प्रशस्त संवेग से विशुद्ध और अर्थोपयोग से युक्त, (७) तदपीकरण (मन-वचन-कायारूप करणों से समर्पित), (८) तद्भावना-भावित (उसी की भावना से भावित), और (९) अन्य स्थानरहित स्वस्थितमना (प्रस्तुत ध्यानादि क्रिया से भिन्न अन्यत्र कहीं भी मन न हो)। धर्मध्यान ध्याता की लेश्या इसके अतिरिक्त धर्मध्यान के तीव्रतम परिणाम वाले उत्तम कोटि के ध्याता के शुक्ललेश्या, मध्यम कोटि के तीव्रतर परिणाम वाले ध्याता के पद्मलेश्या और मंद कोटि के तीव्र परिणाम वाले ध्याता के तेजोलेश्या अपनी-अपनी योग्यतानुसार तीव्र, मध्यम और मन्दरूप में होती है। धर्मध्यान का फल धर्मध्यान से संवर, निर्जरा एवं शुभ योग की परम्परा की प्राप्ति होती है। शील और संयम से युक्त योगी धर्मध्यान में स्थित होने से पुण्यानुबन्धी पुण्य का उपार्जन करता है। उसे बोधिलाभ तथा असंक्लिष्ट भोगों की प्राप्ति होती है। फलतः वह अनासक्तभाव, प्रव्रज्या और परम्परागत केवलज्ञान की प्राप्ति तथा मोक्ष का शाश्वत सुख प्राप्त करता है। धर्मध्यान सालम्बन भी, निरालम्बन भी धर्मध्यान में पिण्डस्थ, पदस्थ और रूपस्थ, ये तीन ध्यान सालम्बन हैं और रूपातीत ध्यान निरालम्बन है, जिसमें कुछ न करके केवल ज्ञाता-द्रष्टाभाव रहता है। १. (क) अनुयोगद्वारसूत्र २७ (ख) ध्यानशतक (ग) हरिभद्रीय आवश्यकनियुक्ति Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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