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________________ ॐ २१४ * कर्मविज्ञान : भाग ७ * देहधारी जीव अपने ही किये हुए कर्मों का फल पाते हैं, स्व के अतिरिक्त दूसरा कोई किसी को कुछ भी (कर्मफल) देता-लेता नहीं। हे भद्र ! तुझे अनन्यचित्त होकर इस सिद्धान्त पर अटल निष्ठा रखकर विचार करते हुए दूसरा कोई कर्मफल देता या भुगवाता है, इस बुद्धि (विचारधारा) का त्याग कर देना चाहिए।" अतः वेदना और निर्जरा दोनों आत्मकृत हैं।' कोई भी शक्ति दूसरे के कर्मों का कर्ता ___इस सिद्धान्त के विपरीत कतिपय ईश्वरकर्तृत्ववादी धर्म-सम्प्रदायों और दर्शनों ने आवाज उठाई-"ईश्वर ही सृष्टि के सभी जीवों का कर्ता, धर्ता, हर्ता है। वह जैसे रखे, वैसे रहो। वह जैसा भी कर्म कराना चाहेगा, करायेगा, स्वर्ग या नरक जहाँ भी जीव जाता है, ईश्वर की प्रेरणा से ही। उसकी इच्छा होगी तो मुक्ति दिला देगा, अमुक कर्मों से छुटकारा दिला देगा। हमें कुछ करने-धरने की जरूरत नहीं।" परन्तु भगवद्गीता, उपनिषद् आदि अध्यात्म-ग्रन्थों में इस मान्यता का खण्डन किया गया है-“प्रभु (परमात्मा) लोक (जगत् या जगत् के जीवों) का या जगत् के जीवों के कर्मों का सर्जन नहीं करता और न ही जीवों को कर्मफल का संयोग कराता है। जगत् और जीव अपने-अपने स्वभाव (स्व-स्वभाव या स्वकर्म) के अनुसार प्रवृत्ति करते हैं।" ईश्वर किसी के पापकर्म और पुण्यकर्म (सुकृत) को नहीं ले लेता। जीवों का ज्ञान अज्ञान से आवृत है, इसलिए वे मोहमूढ़ बनते हैं। गीता में यह भी बताया है कि कर्मफल का त्याग करके निष्कामभाव से, अनासक्त होकर शुभ या शुद्ध कर्म करे। शुद्ध या शुभ कर्म करते समय फलासक्ति का, फल का तथा अहंकार-ममकार का, विषयासक्ति, प्रमाद या आलस्य का त्याग करे। राग-द्वेष, काम-क्रोध-लोभादि विकारों से दूर रहकर कर्म करने से कर्म करता हुआ भी कर्मजनित दोषों से लिप्त नहीं होगा। महाभारत, चाणक्यनीति आदि भी इसी तथ्य का समर्थन करते हैं। इस प्रकार के स्पष्ट प्ररूपण से किसी ईश्वर, भगवान, १. (क) स्वयं कृतं कर्म यदात्मना पुरा, फलं तदीयं लभते शुभाशुभम्। परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुटं, स्वयं कृतं कर्म निरर्थकं तदा ॥३०॥ निजार्जितं कर्म विहाय देहिनो, न कोऽपि कस्यापि ददाति किंचन।। विचारयन्नेवमनन्यमानसः, परो ददातीति विमुंच शेमुषीम् ।।३१।। -अमितगतिसूरिकृत सामायिक पाठ (ख) अत्तकडा वेयणा अत्तकडा निज्जरा। -भगवतीसूत्र, श. १७, उ. ४ २. (क) ईश्वरप्रेरितो गच्छेत् स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा। (ख) स एव कर्तुमकर्तुमन्यथा कर्तुं वा समर्थः। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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