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________________ ॐ निर्जरा : अनेक रूप और स्वरूप ॐ २१३ * ईश्वर किसी के कर्म लगाता-छुड़ाता नहीं कतिपय धर्म-सम्प्रदायों का यह मत है कि ईश्वर, खुदा, गॉड, परमात्मा आदि की केवल बाह्य पूजा, अर्चा, स्तुति, भक्ति, स्तोत्र पाठ, स्तवन करने या गुणगाथा गाने मात्र से तथा हिंसादि पापकर्म या अशुभ कर्म करते रहकर ईश्वर, खुदा और गॉड आदि से माफी माँगने मात्र से या दुआ माँगने मात्र से पूर्वकृत कर्मों या कर्मों के फल से छुटकारा हो जाता है। किन्तु यह मत सिद्धान्त और युक्ति से विरुद्ध है। ईश्वर या खुदा आदि उन पूर्वकृत पापकर्मजनित फलों से या कर्मों से छुटकारा नहीं दिला सकता। तुम्हारे बदले ईश्वर कर्मों से जनित दुःखों का वेदन (फलभोग) नहीं करेगा, न ही कर्मनिर्जरा करेगा। जैन-कर्मविज्ञान का अकाट्य सिद्धान्त है कि जीवों का दुःख आत्मकृत है, परकृत नहीं और न उभयकृत है। जीव आत्मकत दुःख वेदते हैं, परकृत दुःख नहीं वेदते और न ही उभयकृत दुःख वेदते हैं। जीवों की वेदना आत्मकृत है, परकृत नहीं और न तदुभयकृत है। सभी जीव आत्मकृत वेदन वेदते (भोगते) हैं, न तो वे परकृत वेदन वेदते हैं और न तदुभयकृत वेदन वेदते हैं। वेदना जब जीव स्वयं भोगता है, तब निर्जरा भी स्वयं करता है, उसके बदले कोई दूसरा नहीं।' प्रस्तुत चार सूत्रों में दुःख शब्द से केवल दुःख अर्थ का ग्रहण न होकर दुःख के हेतुभूत कर्मों का ग्रहण होता है। अतः दुःख से सम्बद्ध दोनों सूत्रों का आशय यह है कि दुःख के कारणभूत कर्म तथा कर्म का वेदन स्वकृत है, परकृत या उभयकृत नहीं। वेदना शब्द से भी यहाँ सुख और दुःख दोनों का तथा सुख-दुःख दोनों के हेतुभूत कर्मों का ग्रहण होता है, क्योंकि साता-असाता-वेदना भी कर्मजन्य होती है। अतः वेदना एवं वेदना का वेदन दोनों ही आत्मकृत होते हैं। स्वकृत कर्म : स्वयं ही फलभोग कर निर्जरा . . परमात्म द्वात्रिंशिका' में कहा गया है कि “आत्मा ने जो कुछ भी शुभ या अशुभ कार्य किया है, उसी का शुभ-अशुभ फल वही प्राप्त करता है। किसी को यदि किसी भी देवी-देव, ईश्वर या दूसरे के द्वारा स्वकृत कर्म का फल प्राप्त होने लगे, तब तो निश्चय ही स्वयं के द्वारा कृत कर्म निरर्थक हो जाएगा।" संसारी १. अप्पणा चेव निज्जरेति, अप्पणा चेव गरहइ। '. नवरं उदयाणंतर-पच्छाकडं कम्म निज्जरेइ॥ -भगवतीसूत्र, श. १, उ. ३, सू. १३ २. गोयमा ! अत्तकडे दुक्खे, नो परकडे दुक्खे, नो तदुभयकडे दुखे। अत्तकडं दुक्खं वेदेति, नो परकडं दुक्खं वेदेति, नो तदुभयकडं दुक्खं वेदेति। अत्तकडा वेयणा, नो परकडा वेयणा, नो तदुभयकडा वेयणा। जीवा अत्तकडं वेदणं वेदेति, नो परकडं वेदणं वेदेति, नो तदुभयकडं वेयणं वेदेति। -वही, श. १७, उ. ४, सू. १३-२० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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