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________________ ५८८ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ प्रति ही क्यों न हो। आजकल अधिकांश लोग वीतराग परमात्मा की भक्ति, स्तुति, जन्मोत्सव या जयंती. आदि मनाते हैं, परन्तु वह स्वार्थ, अहंकार, प्रसिद्धि, मद, मात्सर्य आदि दूषणों से युक्त होती है, जिसके कारण वह भक्तिराग प्रशस्त न रहकर अप्रशस्त, लोकोत्तर न रहकर लौकिक या मोक्षप्रयोजनार्थ न होकर संसार-प्रयोजनार्थ हो जाता है। इसी प्रकार अपने माने हुए अरिहंत देव के प्रति अन्धभक्ति राग हो, किन्तु दूसरे के माने हुए अरिहन्त देव के प्रति या अन्य नाम के वीतराग देव के प्रति घृणा, विद्वेष, ईर्ष्या आदि हो तो वहाँ भी अप्रशस्त राग ही समझना चाहिए। .. गुरु के प्रति प्रशस्त राग-इसी प्रकार निर्ग्रन्थ गुरु, आचार्य, उपाध्याय या साधु-साध्वी के प्रति जो रागभाव होता है, जिसके पीछे गुरु की शिष्य के प्रति और शिष्य की गुरु के प्रति कल्याण-कामना का राग प्रशस्त होता है। गुरु भक्ति के प्रवाह में बहकर यदि शिष्य या अनुगामी व्यक्ति अपना स्वार्थ, प्रसिद्धि, चमत्कार आदि द्वारा अपना उल्लू सीधा करता हो, तब गुरु के प्रति वह राग प्रशस्त न होकर अप्रशस्त हो जाता है। इसी प्रकार अपने गुरु के प्रति अन्धभक्ति ऐसी हो कि वह दूसरे निर्ग्रन्थ गुरुओं की निन्दा, बदनामी, द्वेष, ईर्ष्या आदि करता हो तो वहाँ भी गुरु के प्रति राग प्रशस्त न होकर अप्रशस्त हो जाता है। जम्बू स्वामी को अपने गुरु सुधर्मा स्वामी पर प्रशस्तभाव का राग था। इसलिए जम्बूस्वामी भी उसी भवम में मोक्ष गए। .. सद्धर्म के प्रति प्रशस्त राग-सद्धर्म का अर्थ श्रुत-चारित्ररूप धर्म अथवा सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप धर्म अथवा क्षमा, मार्दव आदि दशविध उत्तम धर्म के प्रति कल्याण-कामना से प्रेरित होकर श्रद्धा-भक्ति और अनुराग रखना। ऐसे धर्म के प्रति श्रद्धा का अर्थ है-अहिंसादि धर्म पर दृढ़ रहना, धर्म के नाम पर हिंसाजनित उपद्रव, मारकाट, हत्या, दंगा, धर्मजनून, साम्प्रदायिक विद्वेष, कलह, पशुबलि, पशुवध के रूप में कुर्बानी या कत्लेआम करना, धर्मान्तर या सम्प्रदायान्तर कराना आदि सांसारिक एवं रागद्वेषवर्द्धक प्रवृत्तियाँ प्रशस्त राग न होकर अप्रशस्त राग हैं। दूसरे धर्म-सम्प्रदाय पर या अन्य धर्मावलम्बियों पर कहर बरसाना, धर्मान्धता है। यह धर्म के प्रति प्रशस्त राग कतई नहीं है। देव, गुरु और धर्म के प्रति प्रशस्तराग आज के युग में विकृत हो रहा है, इसमें धर्मान्धता, धर्मजनून, साम्प्रदायिक कट्टरता, विद्वेष एवं ईर्ष्या की वृत्ति घुस गई, धर्म में भी भ्रष्ट राजनीतिक दाँव पेंच घुस गए। अहिंसा, संयम और तपरूप शुद्ध धर्म में भी दम्भ, दिखावा, प्रदर्शन, प्रसिद्धिलालसा, प्रशंसा की वृत्ति, प्रतिस्पर्धा आदि विकृत . १. कर्म की गति न्यारी से भावांश ग्रहण, पृ. २२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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