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________________ रागबन्ध और द्वेषबन्ध के विविध पैंतरे ५८७ प्राप्ति देखी जाती है। 'आत्मानुशासन' में भी कहा गया है-"अज्ञानतिमिर को नष्ट कर देने वाले प्राणी का तप और शास्त्र के प्रति जो अनुराग होता है, वह सूर्य की प्रभातकालीन लालिमा के समान उसके अभ्युदय के समान होता है।" 'प्रवचनसार' में कहा गया है-(प्रशस्त) राग के संयोग से शुद्ध आत्मा का अनुभव होता है। इसलिए वह परम-निर्वाण सौख्य का कारण बनता है। प्रशस्तराग-देव, गुरु और धर्म के प्रति होता है। इन तीनों के प्रति शुभ राग होता है, तो कषायवृद्धि नहीं होती।२ । देव के प्रति प्रशस्तराग तभी माना जाता है, जब पूर्वोक्त शुभ उद्देश्यों से युक्त हो। जैसे-गणधर गौतमस्वामी का अपने देव एवं गुरु भगवान् महावीर के प्रति प्रशस्त राग था, जिसमें संसार की, पद-प्रसिद्धि की अथवा अन्य लौकिक आकांक्षाओं की पूर्ति की कोई कामना नहीं थी; कर्मबन्ध का कोई हेतु नहीं था। भगवान् पर गौतम का इतना अधिक अनुराग था, केवल अपने आत्मकल्याण और मोक्षप्राप्ति की इच्छा के उद्देश्य से। इसलिए एक क्षण भी भगवान् से बिछुड़ना गौतमस्वामी के लिए असह्य था। वृक्ष के साथ छाया की तरह गणधर गौतम भगवान् महावीर से जुड़े हुए थे। इसलिए यह प्रशस्तराग केवलज्ञान में बाधक तो हुआ, किन्तु संसार-परिभ्रमण का कारण नहीं बना। यदि गौतमस्वामी में प्रशस्तराग न होता, वह राग अप्रशस्त की कोटि का होता, तो उन्हें पुनः जन्म लेकर संसार में भटकना पड़ता। परन्तु गौतम का महावीर के प्रति राग किसी स्वार्थ, भय, प्रलोभन, यशकीर्ति, धनादि लाभ, अहंकार, मद, मात्सर्य से प्रेरित होता तो वह अप्रशस्त हो जाता, भले ही वह अरिहंतदेव के १. . (क) आचार्य जिनदास महत्तर-रज्यतेऽनेन वा जीव इति रागः राग एव बन्धनम्। -आवश्यकचूर्णि (ख) रागः प्रशस्ताप्रशस्तभेदेन द्विविधः। -नियमसार ता. वृ. ६६ • ' (ग) कर्म की गति न्यारी भा.८, पृ. २२ (घ) सिव-पडि णिम्मलिकरहिं रइ घरु परियणु लहु छंडि। - परमात्मप्रकाश मू. २/१२८ (ङ) तिरयण-साहण-विसय-लोहादो सग्गापवग्गाणमुप्पत्तिदंसणादो। -कसायपाहुड १/१,२१/३४२ (च) विधूततमसो रागस्तपः श्रुतनिबन्धनः। सन्ध्याराग इवार्कस्य जन्तोरभ्युदयाय सः॥ -आत्मानुशासन १२३ श्लोक २. (प्रशस्त) राग-संयोगेन शुद्धात्मनोऽनुभवात् क्रमतः परमनिर्वाण-सौख्यकारणत्वाच्च मुख्यः । . -प्रवचनसार (त. प्र.) २५४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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