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________________ ५५६ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ शान्तिपाठ का या लोगस्स (चतुर्विंशति स्तव) का या नमोत्थुणं (शक्रस्तव) का पाठ करे। स्तोत्र पाठ या स्तुति-पाठ के भावों को अन्तर् में ग्रहण करने और उसके साथ एकरूप होने का प्रयत्न करे। यदि ऋणानुबन्ध के अशुभ उदय की स्थिति दीर्घकाल की हो और तीन महीने के पाठ से दूर न हो तो और तीन मास तक निर्धारित स्तोत्र या स्तुति का पाठ करे, ऐसा करने से सुखद परिणाम आने की सम्भावना है। ___ इसके साथ ही प्रभु के समक्ष निम्नोक्त प्रकार से विनति (विनयपूर्वक निवेदन = प्रार्थना) दिन में पांच बार करना__ (१) "संसार में आने से प्रारम्भकाल से आज (इस क्षण) पर्यन्त इस जीव.ने देव, मनुष्य एवं तिर्यंच गति के जीवों के सम्बन्ध (सम्पर्क) में आकर जानतेअजानते जो दोष या अपराध मन-वचन-काया से किया हो, उन सबके लिये उन सबसे मन-वचन-काया से आपके समक्ष पश्चात्तापपूर्वक क्षमा मांगता हूँ। मेरे वे पाप-द्वोष-अपराध निष्फल हों। वे सर्व जीव मुझे क्षमा करें। आपकी असीम कृपा से मैं भी उनके प्रति वैर-विरोध की वृत्ति को भूल रहा हूँ, वे भी अपनी वैर-विरोध की वृत्ति भूल जाएँ। उनका कल्याण हो, उन्हें सुख-शान्ति प्राप्त हो, यही विनती है।" ___ (२) "हे कृपालु वीतराग भगवन् ! देव, मनुष्य या तिर्यंच की ओर से मेरे पर कोई उपद्रव, आतंक, कष्ट या संकट आयेंगे तो भी मेरी समभावपूर्वक सहन करने की भावना है तथा आपकी आज्ञानुसार चल कर उस जीव का हित और कल्याण चाहूँगा। इस कार्य में सफल होने के लिए मुझे आपसे प्रेरणाबल या स्फुरणाबल मिलता रहे, ऐसी कृपा करने की विनती है। कृपा करके ऐसे विकट प्रसंग में मुझे सहायता और शक्ति प्रदान करके मेरी आत्मरक्षा करें। हे करुणासागर प्रभो ! आपकी इस अहेतुकी असीम कृपाभाव का उपकार मैं कदापि नहीं भूलूँगा और आपका उपकार मानता ही रहूँगा।" ये और इस प्रकार की अन्य जो भी भाववाही, श्रद्धाभक्तिपूर्ण विनती या प्रार्थना अन्त:करण में स्फुरित हो, उसका भी इस विनती में समावेश किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त निनोक्त या ऐसी अन्य धुनों को कम से कम ५ मिनट तक बोलें-"शान्तिनाथजी शान्ति करें, वीरप्रभु वीरता भरें, पार्श्वप्रभु मेरी आत्मा के पास रहें, धर्मनाथजी धर्म में स्थिर करें, सुमतिनाथजी सुमति दें।" ___ इस प्रकार अभ्यास करने से ऋणानुबन्ध का अशुभ उदय कम होकर अप्रभावी और क्षीण हो जाएगा। यही कर्मबन्ध से कर्म-मुक्ति तक पहुँचने का सरल मार्ग है। १. ऋणानुबन्ध से साभार, पृ. ७८ से ८० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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