SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 575
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ऋणानुबन्ध : स्वरूप, कारण और निवारण ५५५ ऋणानुबन्ध के अशुभ उदय को अप्रभावी, शान्त और क्षीण करने के उपाय जिस व्यक्ति की इतनी उच्चभूमिका न हो, वह अशुभ ऋणानुबन्ध के अशुभ उदय होने पर अनिष्ट फल प्राप्त होने पर शान्ति, समता, धैर्य पूर्वक सहन करे। आत्मचिन्तन, कर्मसिद्धान्त-चिन्तन या आध्यात्मिक ग्रन्थों का स्वाध्याय आदि करे। इष्टवियोग तथा अनिष्टयोग में होने वाले निमित्तों पर दोषारोपण न करे, केवल अपने आत्म-उपादान का ही विचार करे। ऐसा करने से नये ऋणानुबन्धी कर्मों का आना (आस्रव) रुक जायेगा। यदि इतना न हो सके तो आर्तध्यान न करे, रौद्रध्यान तो किसी भी हालत में न करे। धर्मध्यान में स्थिर रहे। अपनी प्रज्ञा को आत्मसमाधि में स्थिर रखने का प्रयास एवं अभ्यास करे। धर्मध्यान के चार रूप हैं-(१) पिण्डस्थ, (२) पदस्थ, (३) रूपस्थ और रूपातीत। इन चारों में से पहले आदि तीन ध्यानों का आलम्बन ले। पिण्डस्थ के द्वारा अपने शरीर और शरीर से सम्बन्धित सजीव निर्जीव पदार्थों की विनश्वरता, अनित्यता, राग-द्वेषकर्तृत्व, अहंकार-ममकार आदि का फिर शुद्ध आत्मा का एवं उसके साथ परभावों तथा वैभाविक भावों का क्या और किस कारण से सम्बन्ध है? . इस प्रकार का तथा अन्त में भेदविज्ञान का दृढ़ चिन्तन-एकाग्रतापूर्वक ध्यान करे। पदस्थ ध्यान के द्वारा किसी पद (उदाहरणार्थ-ॐ शान्ति, ॐ अहम, ॐ असिआउसा नमः, ॐ नमः सिद्धेभ्यः, नमो जिणाणं जियभवाण, आदि में से किसी एक पद) का ध्यान करे। एकाग्रतापूर्वक स्वरूप चिन्तन करे अथवा नवकारमंत्र या किसी भी अन्य लोकोत्तर मंत्र, मंगलपाठ, स्तोत्र आदि का स्मरण या जप करना। तत्पश्चात-रूपस्थ ध्यान द्वारा किसी महापुरुष का मन में चित्र अंकित करके अथवा चित्र, प्रतिकृति या प्रतीक का आलम्बन लेकर एकाग्रचित्त से उनके स्वरूप, गुण-समूह तथा उनके स्व-भाव का चिन्तन करे। विशेष संकट उपस्थित होने पर शान्ति का उपाय 'अगर विशेष संकट, विघ्न-बाधा, विपत्ति या असह्य व्याधि या व्यन्तरादि देवों, मनुष्यों या तिथंचों का उपद्रव, आतंक या अशान्ति का वातावरण हो, मन क्षुब्ध रहता हो, मन आसध्यान से किसी भी प्रकार से हटता न हो, तनाव हो तब या तो शुद्ध होकर प्रतिदिन नियमित रूप से पूर्ण श्रद्धाभक्तिपूर्वक कम के कम तीन महीने तक प्रातः भक्तामरस्तोत्र का या सन्ध्याकाल में कल्याणमन्दिर स्तोत्र का, या बृहत् १. ऋणानुबन्ध से भाषांश ग्रहण, पृ. ९७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy