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________________ ५४४ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ ने वह रकम उधार रूप में ली और शीघ्र ही व्यवसाय करके वापस लौटा दी। धौलिया बैल अपने पूर्वजन्म का ऋण चुकता होने से उसी दिन मर गया। सच है, पूर्वजन्म का शुभ-अशुभ ऋण उदय में आने पर चुकाये बिना कोई चारा नहीं है। मनुष्य और देव के बीच परस्पर ऋणानुबन्ध का उदय कभी-कभी ऋणानुबन्ध ऐसे विचित्र, अतर्कित रूप से उदय में आता है, जबकि कोई एक मनुष्य देवगति के देव या देवी के साथ सीधे सांसारिक सम्बन्ध में न होने पर भी उसका ऋण देव या देवी द्वारा अदा किया जाता है। कर्म की विचित्रता का यह अद्भुत नमूना है। वह ऋण शुभ या अशुभ जैसा भी होता है, उसका अच्छा या बुरा फल मनुष्य को देव या देवी द्वारा भोगना पड़ता है। अनेक लोगों को इस प्रकार के देववर्ग द्वारा ऋण अदा करने की प्रतीति हुई होती है। ___ प्राचीन जैनकथाओं में अनेक कथाएँ ऐसी मिलती हैं कि जिसमें शुभ ऋणानुबन्ध के उदय होने पर देव या देवी भी सहायता करते हैं। मदनरेखा ने अपने पति युगबाई को अन्तिम समय में अपने प्रति मोह और बड़े भाई के प्रति द्वेष करने से रोक कर चार मंगलमय उत्तम शरण की आराधना कराई थी। जिसके फलस्वरूप शुभभावों में मरकर वह देव बना और समय आने पर मदनरेखा की धर्माराधना-साधना में सहायता की।२.गोभद्रसेठ का अपने पत्र शालिभद्र पर इतना प्रेम था, जिसके कारण मरकर देव बनने पर शालिभद्र के लिए रत्न आदि से भरी पेटियाँ प्रतिदिन भेजता था। पूर्व शुभ ऋणानुबन्ध के फलस्वरूप उसे सांसारिक सुख-सुविधाओं की किसी प्रकार की कमी नहीं थी। आपने अपने अनुभव से जाना-सुना होगा कि देवलोक में गया हुआ कोई सम्बन्धित जीव स्वप्र में अथवा जागृत-अवस्था में अपने मूलदेह में अथवा पूर्वजन्म के देह में आकर अपने किसी सम्बन्धी के प्रति अनुरागवश कष्ट, विपत्ति या समस्या के समय परामर्श, सहयोग या निवारणोपाय करते या बताते थे। धन आदि के या स्वास्थ्यलाभ के लिए यथोचित मार्गदर्शन देते थे, बशर्ते कि उस व्यक्ति का शुभऋणानुबन्ध का उदय हो। एक व्यक्ति पर बीती हुई घटना लीजिए-मांगीलाल जब ५ वर्ष का था, तभी उसके माता-पिता असाध्य रोग से ग्रस्त होकर चल बसे। रह गया मांगीलाल अकेला १. दो आँसू (उपाध्याय केवल मुनिजी) से सार संक्षेप पृ.७८ से ९५ तक २. (क) मदनरेखा (स्व. जैनाचार्य पूज्य श्री जवाहरलालजी म.) से भावांश ग्रहण (ख) जैन कथाएँ-उपाध्याय पुष्कर मुनि जी से भाव ग्रहण . ३. (क) बीकानेर के व्याख्यान (स्व. जैनाचार्य पूज्य श्री जवाहरलाल जी म.) (ख) ऋणानुबन्ध (भोगीभाई गि. शेठ), पृ. ६२ For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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