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________________ ५३६ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ आपने विमल मुनि जी के समक्ष प्रार्थना की- 'मुनिवर ! जैन समाज का मुझ पर अपार ऋण है। मैंने अपने जीवन में जो शान्ति और प्रतिष्ठा अर्जित की है, वह जैन समाज की बदौलत ही हुई है। साथ ही आप श्री की प्रेरणा से संघ ने मुझ पर सेवा का भार डाल कर अनुगृहीत किया, उसके लिये आभारी हूँ। मेरी प्रार्थना है कि आप अपनी प्रेरणा के अनुरूप जैन समाज की सेवा की मेरी इच्छा पूर्ण करें।' उसी समय लालाजी ने अपने सुयोग्य पुत्रों को बुलाकर कहा 'पुत्रो ! मैं गुरुदेव के समक्ष तुम्हें आज्ञा देता हूँ कि जैन समाज की सेवा करके मेरी इच्छा पूर्ण करो।' उसी समय उनके ज्येष्ठ पुत्र श्री टेकचंद जी ने हाथ जोड़कर कहा- 'पूज्य पिताजी! हमारे पास जो कुछ भी है, वह गुरुओं और आपकी कृपा का सुफल है। इसलिए आपकी आज्ञा शिरोधार्य होगी । आप आज्ञा दीजिए।' लालाजी ने अपनी उत्कृष्ठ भावना प्रदर्शित करते हुए कहा- 'बेटा! तुम तीनों पुत्र एक-एक लाख रुपये दो ताकि यहाँ पर जो सामाजिक आवश्यकताएँ हैं, उनकी पूर्ति की जा सके। उदाहरणार्थ- महिलाओं के लिए पौषधशाला, कन्या- पाठशाला, अतिथियों के लिये धर्मशाला आदि आवश्यकताओं को पूरा करना जरुरी है।' पिता ने जिस समाज - वात्सल्य से प्रेरित : होकर पुत्रों को आदेश दिया, पुत्रों ने उससे भी बढ़कर पितृभक्ति का सबूत पेश किया। लालाजी के पुत्रों ने उक्त तीनों आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये १२०० गज जमीन खरीद ली और तीन लाख रुपयों का दान लिखा दिया । यह सर्वोत्तम दान भटिंडा के लिए ही नहीं, समस्त जैनसमाज के लिये अनुकरणीय बन गया । १ यह है, शुभऋणानुबन्ध के उदय के फलस्वरूप शुभ, सुखद और सन्तोषजनक परिणामों का अनुभव ! पूर्वबद्ध शुभ ऋणानुबन्ध के कारण उनके परिवार में परस्पर अनुकूल रहने की वृत्ति रही, सभी एक दूसरे के प्रति आत्मीयतापूर्ण व्यवहार रखते थे। सम्पर्क में आने वाले मनुष्यों के साथ भी उसके सम्बन्ध अच्छे थे। - मनुष्य- मनुष्य का अशुभ ऋणानुबन्ध के कारण अशुभ उदय- ज्ञानी वीतराग महापुरुषों ने इस संसार को जन्ममरण-रोग-शोक-संतापादि अनेक दुःखों से पीड़ित कहा है। उसमें जो भी अल्प सुख का वेदन होता है, उसे शुभ ऋणानुबन्ध का उदय समझिए । परन्तु शुभ उदय के उदाहरण संसार अत्यन्त अल्पसंख्या में मिलते हैं। अधिकांश लोगों के जीवन में तो अशुभोदय के कारण दुःख, कलहक्लेश, वैर-विरोध, आदि का पद-पद पर अनुभव होता है। हम अपनी खुली आँखों और सूक्ष्म दृष्टि से देखें तो अनेक परिवारों में इस अशुभ ऋणानुबन्ध के उदय का ही अट्टहास होता रहता है। १. सुधर्मा (मासिक) ता० १५ / ३ / ७२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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