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________________ ऋणानुबन्ध : स्वरूप, कारण और निवारण ५३५ या चुकने हेतु परस्पर सम्बन्ध या समागम से जुड़ते हैं, तदुपरान्त एक गति के जीव के साथ अन्य गति के जीव के ऋणानुबन्ध का विशेष प्रकार का उदय होने पर भी वे भी अपना-अपना ऋण चुकाते हैं या चुकते हैं। ... मनुष्य-मनुष्य के बीच ऋणानुबन्ध का उदय मनुष्यमात्र का जन्म से लेकर मृत्यु-पर्यन्त जीवन प्रायः शुभाशुभ ऋणानुबन्ध के उदय से व्यतीत होता है। शुभाशुभ ऋणानुबन्ध के अनुसार माता-पिता के यहाँ जन्म होता है, तथा वैसे ही भाई-बहन, पति-पत्नी, मामा-मौसी, संतान, या अन्य रिश्तेनाते आदि या सेठ-नौकर आदि सम्बन्ध जुड़ते हैं, वे सब या तो ऋण चुकाने हेतु होते हैं, या फिर ऋण वसूलने हेतु होते हैं। उन सभी सम्बन्धों का अच्छा-बुरा स्पष्ट अनुभव सभी को होता है और तदनुसार प्रत्येक व्यक्ति को सुख-दुःख का वेदन भी होता है। ऋणानुबन्ध का शुभ उदय होने पर संतोष और सुख का तथा अशुभ उदय होने पर दुःख और अशान्ति का अनुभव होता है। कई बार अशुभ उदय की दीर्घकालिक स्थिति के साथ तीव्रता और घनिष्ठता इतनी बड़ी और प्रबल होती है कि उसका वेदन करते हुए जीव बहुत ही बेचैन हो उठता है, परेशानी भोगता है। व्यवहार दृष्टि से छूटने का उपाय होने पर भी उदयाधीन एवं निरुपाय होने से उस दुःख को बरबस भोगना ही पड़ता है। शुभ ऋणानुबन्ध का उदय-भटिंडा जैन समाज के प्रधान वयोवृद्ध सुश्रावक श्री कुन्दनलाल जी जैन सुसंस्कारी, सदाचारी, सेवाभावी और दृढनिश्चयी थे। उनके तीन पुत्र हैं, तीनों आज्ञाकारी, विनीत और सुशील हैं। उनकी पत्नी भी धर्मानुरागी, पतिपरायणा और तपत्याग में अनुरक्त श्राविका थी। पतिपत्नी दोनों धर्मपरायण, दानशील और समाजसेवा में यथाशक्ति अपने धन का सदुपयोग करते थे। पूर्वजन्म के शुभ ऋणानुबन्ध के कारण उन्हें ऐसे परिवार का सुयोग मिला। तीनों पुत्रों की शादी उन्होंने बड़ी सादगी से की। तीनों पुत्रवधुएँ बहुत ही शिष्ट, सुशील और आज्ञाकारिणी मिलीं। व्यापार में आर्थिक उन्नति के साथ-साथ समाजसेवा में रुचि के कारण उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा भी काफी बढ़ गई थी। लाला कुन्दनलाल जी ने अपनी प्रौढ़ावस्था में ही परिग्रह-परिमाणवत अंगीकार करके अल्पपरिग्रह का आदर्श उपस्थित कर दिया था। फिर एक बार जब वे सन् १९७१ के चातुर्मासकाल में ही हृदयरोगग्रस्त हो गए थे, तभी स्वयं को अस्वस्थ तथा जीवन का सन्ध्याकाल जानकर १. ऋणानुबन्ध (भोगीभाई गि. शेठ) से, पृ० १४, १६ २. ऋणानुबन्ध (भोगीभाई नि. शेठ) पृ० ३८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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