SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 506
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४८६ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ निर्देश इस प्रकार है-एकेन्द्रिय-द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय-पंचेन्द्रिय-लब्धि क्षायोपशमिक, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, आभिनिबोधिक ज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी सम्यगमिथ्यात्वलब्धि, सम्यक्त्वलब्धि, संयमासंयमलब्धि, संयमलब्धि, दान-लाभभोग-उपभोग-वीर्य-लब्धि, आचारधर, सूत्रकृतधर, स्थानधर, समवायधर, व्याख्याप्रज्ञप्ति-धर तथा नायाधर्मधर, उपासकाध्ययनधर, अन्तकृद्धर, अनुत्तरौपपातिकधर, प्रश्नव्याकरणधर, विपाकसूत्रधर, दृष्टिवादधर, गणी, वाचक, दशपूर्वधर तथा क्षायोपशमिक चतुर्दश-पूर्वधर; ये तथा इसी प्रकार के और भी जो क्षायोपशमिक भाव हैं, वे सब तदुभय-प्रत्ययिक जीव-भावबन्ध है। आगे धवला में कहा गया है कि जीव के समग्र अवयवों (प्रदेशों) में क्षयोपशम की उत्पत्ति स्वीकार की गई हैं। चार घातिकर्मों में से किस कर्म में किन-किन भावों का प्रादुर्भाव? निष्कर्ष यह है कि सम्यक्त्व और चारित्र तीन प्रकार का है-औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक; क्योंकि मोहनीय कर्म के उपशम, क्षय और क्षयोपशम तीनों होते हैं। अतः इन तीनों से साध्य सम्यक्त्व और चारित्र भी तीन प्रकार के हैं। अन्तराय कर्म के क्षय और क्षयोपशम दो ही होते हैं। अतः दानादि पांच लब्धियाँ क्षायोपशमिक और क्षायिक इन दो ही भावों में आती हैं। ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म के क्षयोपशम और क्षय, ये दो ही होते हैं, इसलिए ये सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन क्षायोशमिक और क्षायिक इन दो ही भावों में आते हैं तथा असम्यग्ज्ञान (मतिरूप, श्रुतरूप और विभंगरूप अज्ञान) केवल क्षायोपशमिक भाव में ही आते औदयिक भाव : स्वरूप, कार्य और फल रागद्वेषादि परिणामों से युक्त होकर मन, वचन और काय द्वारा विभिन्न-प्रवृत्तियों या क्रियाओं के करने से आत्म-प्रदेशों में शुभ-अशुभ कर्मों का आस्रव और बन्ध होता है, तत्पश्चात् वे बद्ध कर्म तत्काल फल न देकर सत्ता (सत्त्व-अवस्था) में पड़े १. जो सो तदुभय-पच्चइयो जीवभावबंधो णाम तस्स इमो णिद्देसो-खओवसमियं एइंदियलद्धि त्ति वा खओवसमियं बेइंदियलद्धि त्ति वा.. "खओवसमियं चोद्दसपुव्वधरं त्ति वा जे चामण्णे एवमादिया खओवसमियभावा सो सव्वो तदुभयपच्चइओ जीव-भाव-बंधोणाम। -षट्खण्डागम १४/५, ६/१९/१८ २. जैनदर्शन (न्यायविजयी), पृ. ३०९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy