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________________ औपशमिकादि पांच भावों से मोक्ष की ओर प्रस्थान ४८५ इसी प्रकार जिनका उपशम सम्भव है, उन सम्यक्त्व तथा चारित्र नामक शक्तियों विषय में भी समझ लेना चाहिए। दर्शन - मोहनीय के क्षयोपशम से जो समता व्यक्त होती है एवं चारित्रमोहनीय के क्षयोपशम से जो शमता प्राप्त होती है, उन दोनों में भी क्षयोपशम के आंशिक उदय के पूर्वोक्त तीनों रूप दृष्टिगोचर होने स्वाभाविक हैं। आशय यह है कि इन दोनों कर्मप्रकृतियों के क्षयोपशम से प्राप्त समता और शमता उपशम की भांति पूर्ण न होकर अपूर्ण होती है; उसकी तरह विशद और निश्चल न होकर कम्पित, संदिग्ध एवं अस्थिर होती हैं । कभी ये दोनों थोड़ी बढ़ जाती हैं, कभी घट भी जाती हैं। किसी साधक में अधिक होती हैं, किसी में कम । जिनमें . आज अधिक हैं, कल उनमें कम हो जाती हैं और जिनमें आज कम हैं, उनमें कल अधिक हो जाती हैं। यह हुआ क्षायोपशमिक भाव का आध्यात्मिक स्वरूप । इसका सैद्धान्तिक स्वरूप इस प्रकार है- क्षयोपशम में क्षय और उपशम दोनों सम्मिलित हैं। अतः क्षायोपशमिक कर्मप्रकृति को न क्षीण कहा जा सकता है और न ही उदित। वैसे चुंधियाने वाली आँख में मूंदने की शक्ति निद्रावस्था की अपेक्षा काफी क्षीण हो चुकी होती है, उसी प्रकार उपशम के पश्चात् आंशिक उदय वाली इस अवस्था में कर्म की शक्ति पूर्वापेक्षया काफी क्षीण होकर उदय में आती है। वर्तमान निषेक की शक्ति का क्षीण होकर उदय में आना ही उस निषेक का क्षय समझना चाहिए, उदय नहीं। क्योंकि जीव के गुण को पूर्णतया आच्छादित या विकृत करने में “समर्थ नहीं है। अर्थात्-कर्मप्रकृति के क्षयोपशम की अवस्था में जीव कर्म के प्रभाव का अनुभव भी करता जाता है, साथ ही अपनी अपूर्ण ज्ञान, दर्शन, समता तथा शमता आदि शक्तियों का न्यूनाधिक स्वाद भी लेता रहता है। उपशम की भांति क्षयोपशम में भी व्यक्ति नीचे गिर जाता है, यानी पुनः कर्मप्रकृति के प्रभाव में आकर अपने पूर्वोक्त शक्तियों के रसों से वंचित हो जाता है। मगर यहाँ उसका अवस्थान उपशम की तरह क्षणमात्र न होकर प्राय: अधिक काल के लिए होता है। दूसरा अन्तर यह है कि उपशम से गिरकर पुनः उपशम नहीं होता; जबकि क्षयोपशम से गिरकर पुनः क्षयोपशम हो जाता है । क्षायोपशमिक क्षेत्र में बहुत लम्बे अर्से तक गिरना - चढ़ना चलता रहता है । १ ये और ऐसे क्षयोपशमजनित भाव क्षायोपशमिक हैं 'षट्खण्डागम' में क्षायोपशमिकभाव-युक्त जीवों का निर्देश विशदरूप से करते हुए कहा गया है - जो तदुभय- प्रत्ययिक ( क्षायोपशमिक) जीवभाव-बन्ध हैं, उनका कर्मसिद्धान्त, पृ. ११३ से ११५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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