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________________ ४७८ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ औपशमिक भाव में जल को ऊपर से स्वच्छ करने की भांति कर्मप्रकृति को थोड़ी देर के लिए सुला दिया जाता है, जिस प्रकार भभके में भाप बनने की प्रक्रिया से जल को शुद्ध (Refine) किया जाता है, उसी प्रकार क्षायिक भाव में बाह्याभ्यन्तर तप की भट्टी पर चढ़ाकर कर्ममल को भस्म कर दिया जाता है। औपशमिक में कर्म शान्त होकर थोड़ी देर के लिए बैठ जाता है, वर्तमान में निश्चेष्ट कर देने पर भी उसका अस्तित्व है, सत्ता में पड़ा है, जबकि क्षायिक में उसे सर्वथा नष्ट कर दिया जाता है, जिससे उसके वापस उभरने का सवाल ही नहीं होता, क्योंकि इसमें प्रतिपक्षी कर्मों का सम्पूर्ण क्षय या विनाश हो जाता है, फिर मलिनता कैसे आएगी? । क्षयिकभाव की नौ विशिष्ट उपलब्धियाँ क्षायिकभाव में ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय (विशेषतः केवलज्ञानावरणीय और केवलदर्शनावरणीय कर्म) के सर्वथा क्षय से केवलज्ञान और केवलदर्शन, पंचविध अन्तरायकर्म के सर्वथा क्षय से दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य, ये पांच लब्धियाँ तथा दर्शनमोहनीय के सर्वथा क्षय से क्षायिक सम्यक्त्व और चारित्रमोहनीय के सर्वथा क्षय से क्षायिक (यथाख्यात) चारित्र, ये नौ उपलब्धियाँ आविर्भूत होती हैं इसलिये केवलज्ञानादि नवविध पर्याय क्षायिक कहलाते हैं। इस प्रकार क्षायिक भाव के कुल ९ भेद केवल चार घतिकर्मों के क्षय से साधित ही यहाँ लिये गए हैं, क्योंकि यह निरूपण सिर्फ (जीवन्मुक्त केवलज्ञानी की) भवस्थदशा को लक्ष में रखकर किया गया है, सिद्ध परमात्मा की दृष्टि से.तो उनमें घाति-अघाति समस्त कर्मों के सर्वथा क्षय से निष्पन्न क्षायिक भाव विवक्षित है । जीवन्मुक्त वीतराग केवल परमात्मा की दृष्टि से क्षायिक भाव के नौ भेद इस प्रकार हैं- (१) क्षायिक ज्ञान (२) क्षायिक दर्शन, (३) क्षायिक दान, (४) क्षायिक लाभ, (५) क्षायिक भोग (६) क्षायिक उपभोग, (७) क्षायिक वीर्य, (८) क्षायिक सम्यक्त्व और (९) क्षायिक चारित्र। १. (क) कर्मसिद्धान्त, पृ. ११६ (ख) तत्त्वार्थसूत्र (उपाध्याय श्री केवलमुनिजी), पृ. ७९ २. (क) जैनदर्शन (न्या. न्या. न्यायविजयजी), पृ. ३०७-३०८, (ख) तत्त्वार्थसूत्र २/४ (ग) प्रशमरति गा. १८७ विवेचन (वाचकवर्य श्री उमास्वाति जी), पृ. ९१-९२ (घ) सम्यक्त्व चारित्रे । ज्ञान-दर्शन-दान-लाभ-भोगोपभोगवीर्याणि च । __ -तत्त्वार्थसूत्र २/३-४, गो. क. सू. ८१६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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