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________________ औपशमिकादि पांच भावों से मोक्ष की ओर प्रस्थान ४७७ स्वाभाविक शक्ति का कदापि घात न करना क्षय कहलाता है। क्षय से होने वाले भाव क्षायिक होते हैं। औपशमिक और क्षायिकभाव में अन्तर औपशमिक और क्षायिक में बहुत अन्तर है। उपशम में मोहनीय कर्म के भागों का उपशमन होता है, क्षायिक में क्षय। उपशमभाव में मोहकर्म समूल नष्ट नहीं होता, वह दब जाता है, वापस उभर आता है, जबकि क्षय में समूल नष्ट हो जाता है। उपशम में थोड़ी देर के लिए उदय रुक जाता है, पर क्षायिक भाव में दग्ध बीज की तरह पुनः उदय में आना संभव नहीं होता। उपशम भाव में मोह उपशान्त होने पर पूर्ण समता-शमता प्राप्त होती है, क्षायिक भाव में भी। परन्तु उपशमभाव की स्थिति सादि-सान्त व बहुत थोड़ी है, क्षायिक भाव की सादि-अनन्त व बहुत अधिक है। औपशमिक में समता-शमता केवल एक क्षण को अपना मुख दिखाकर लुप्त हो जाती हैं, जबकि क्षायिक भाव में क्षय से प्राप्त वे सदा-सदा के लिए अवस्थित रहती हैं। औपशमिक भाव में उपशम केवल सम्यक्त्व और चारित्र के क्षेत्र में ही होता है, वह भी मोह का ही जबकि क्षायिक में इन दोनों के अतिरिक्त ज्ञान, दर्शन, दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य इन नौ शक्तियों के क्षेत्र में लागू होता है। क्षायिक भाव में सदा के लिए दर्शन-मोह तथा चारित्रमोह के क्षय से पूर्ण समता और पूर्व शान्ति (शमता) प्राप्त होने के साथ-साथ ज्ञानावरणीयादि शेष तीन घातिकर्मों के क्षय से ज्ञान, दर्शन, दानादि पाँच लब्धियाँ आदि शक्तियाँ सदा के लिए पूर्ण हो जाती हैं। कर्मों के आत्यन्तिक क्षय से जीव के परिणाम अत्यन्त विशुद्ध और निर्मल होकर सदाकाल के लिए वैसे ही बने रहते हैं। १. (क) क्षयः आत्यन्तिकोच्छेदः। • -पंचसंग्रह मलय. टीका पृ. १२९ (ख) क्षयः प्रयोजनमस्येति क्षायिकः। -स. सि. २/१/१४९ (ग). यथास्वं प्रत्यनीकानां कर्मणां स्वतः क्षयात् जातो यः क्षायिको भावः शुद्ध: स्वाभाविकोऽस्य सः। ' -पंचाध्यायी (उ.) ९६८ (घ) कम्माणं खए जादो खइओ, खयढें जाओ वा खइओ भावो, इदि दुविहा सद्दउप्पत्ती घेत्तव्वा। -धवला ५/१,७,१०/२०६ (ङ) क्षयेण युक्तः क्षायिकः। -पंचास्तिकाय (त. प्र.) ५६ (च) तस्मिन् (क्षये) भवः क्षायिकः। -गोम्मटसार (जी. प्र.) ८/२९/१४ (छ) तत्त्वार्थसूत्र (पं. सुखलालजी), पृ. ४८ (ज) कर्मग्रन्थ भा. ४ विवेचन (पं. सुखलालजी), पृ. ९६ (झ) कर्मसिद्धान्त, पृ. ११५ . (ब) जैनदर्शन, पृ. ३०७ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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